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आज रात कंडोम का इस्तेमाल न करें.
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अपनी मां से ब्रेकअप करने का क्या ये सही समय
नहीं है?
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जल्द ही शादी कर बच्चे पैदा करें, क्योंकि
आपकी बेबी सिटिंग करने के लिए पैरेंट हमेशा आपके इर्दगिर्द नहीं
रहेंगे.
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क्या तुम्हारा ब्वायफ्रेंड रतन टाटा की तरह
बड़ा आदमीं बनेगा? ये जज करने वाली आप कौन होती हैं?
निकोल
किडमैन?
ये और इनके जैसे और कई जुमले देश में तेजी से
घटते पारसी समुदाय पर किसी और ने नहीं बल्कि अल्पसंख्यक मंत्रालय ने एक सरकारी
अभियान के जरिए कसे हैं. जियो पारसी
नाम का यह अभियान इन दिनों विज्ञापन के बाजार में अपनी विवादास्पद सामग्री के चलते
बेहद चर्चित है. कहने को तो यह कैम्पेन पारसी समुदाय को आबादी बढ़ाने के लिए
प्रेरित करने के मकसद से केंद्र सरकार और निजी संस्था के साझे में चलाई जा रही
जियो पारसी स्कीम को प्रमोट
करने के लिए बनाया गया है. लेकिन इनमें जिस तरह की तस्वीरें और तंज कसे गए हैं व
हर किसी के गले नहीं उतरते. मसलन 40 पार अविवाहित पारसी, जो अभी भी अपनी
मां के साथ रह रहे हैं का मजाक उड़ना और कंडोम का इस्तेमाल न करने की नसीहत अदि. एक
तरफ जहाँ अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा
हेपतुल्ला का कहना है कि इस अभियान के सकारात्मक परिणाम आये हैं और 8 पारसी महिलाओं ने गर्भधारण किया है. वहीँ पारसी समुदाय के इतिहास पर रिसर्च कर रहीं सिमिन पटेल के मुताबिक ये विज्ञापन
जिस तरह का दबाव महिलाओं पर पैदा कर रहे हैं, उससे यही लगता है कि महिला का जीवन शादी या बच्चे के बिना अधूरा है. यह बेहद
नाराज करने वाली पहल है.
बहरहाल, यहाँ मसला सरकारी अभियान की मंशा पर
सवाल उठाना नहीं है बल्कि आये दिन विज्ञापनों की कथावस्तु और फिल्मांकन में अश्लीलता, विवादास्पद संवाद,
आक्रामकता, प्रतिस्पर्धा की आड़ में व्यकितगत हमला और सनसनीखेज तत्वों की बढ़ती
प्रवत्ति है. इन दिनों टीवी और अखबार पर आ रहे विज्ञापनों में ज्यादातर उपभोक्ता को
उत्पाद की जानकारी देने के अलावा बाकी सब कुछ बताया और दिखाया जाता है. फिर चाहे
वो किस जूते के विज्ञापन में किसी महिला के नंगे बदन की नुमाइश हो, किसी कंडोम के
विज्ञापन में कौफी, स्ट्राबेरी के फ्लेवर की बात हो, फलां ब्रांड न इस्तेमाल करने
वाले को पिछड़ा बताना हो या धर्म की आड़ में किस्मत चमकाने वाले मंत्र, सिद्धि यन्त्र
और हनुमान लोकेट के फर्जी दावे हों. कई बार तो एड फिल्म की आड़ में उन्हें बरगलाया
या उकसाया तक जाता है.
परफ्यूम से इरोटिक कुछ और होता है क्या? |
एक परफ्यूम का विज्ञापन देखिये, इसमें एक
नवविवाहित महिला उस ब्रांड की खुशबू से इतनी बहक जाती है कि अपने पति को छोड़ सामने
वाले की तरफ काम यौनेक्षा से आकर्षित होने लगती है. ऐसे ही अगर आप टूथपेस्ट में
नमक या क्रिस्टल नहीं है तो फिर आप का मंजन कूड़ा है. इसी अंदाज़ में बनियान को
किस्मत की चाबी बताने वाला विज्ञापन सनी देओल और जोनी लीवर से कहलवाता है कि अपना
लक पहन के चलो. यानी बनियान नहीं आपकी किस्मत है, जिसकी कीमत 100 रूपए से भी कम
है. सोचने वाली बात है कि बनियान को किस्मत की चाबी बताने वाली अभिनेता सनी देओल
और जोनी लीवर खुद के करियर के बुरे दौर से गुजर रहे हैं. कहने का मतलब यह है जो
खुद अपनी किस्मत चमकाने के लिए ऐसे विज्ञापनों का सहारा ले रहे हैं, उनके जरिये
बेची जाने वाली बनियानें कैसे किसी की किस्मत चमका सकती हैं?
विवाद, विज्ञापन और बिक्री
मॉस कम्युनिकेशन के कोर्स के दौरान हमें
पढाया जाता था कि बिना विज्ञापन के किसी सामान को बेचना अँधेरे में किसी लडकी को
आंख मारने जैसा है. यानी आपके सामान की बिक्री और आपका प्रयोजन बिना प्रचार के हल
नहीं हो सकता. साथ ही कोर्स की किताबों में विज्ञापन के नाम का पूरा चेप्टर है. इस
चेप्टर में विज्ञापन की परिभाषा का मुख्य सार यही है कि उपभोक्ता तक पहुचने के लिए
जो तरीका अपनाना पड़े, अपनाए, क्योंकि बिना चर्चा के उत्पाद बिकना संभव नहीं है. शायद
इसीलिए आज का विज्ञापन बाजार किसी भी प्रोडक्ट को बेचने के लिए गुणवत्ता का सहारा
नहीं बल्कि विवादों (चर्चा) का सहारा लेना पसंद करता है. इसका सीधा फायदा तो यह
होता है कि सम्बंधित उत्पाद चर्चा का केंद्र बन जाता है और मुफ्त की पब्लिसिटी हो
जाती है. लेकिन जब इन अश्लील और विवादित विज्ञापनों को 5 साल का बच्चा घर पर टीवी
में देखता है तो उसके दूरगामी नुकसान समझ में आते हैं.
इनको भी नहीं छोड़ा. |
तुर्की की हेअर रिमूवर क्रीम बेचने वाली कम्पनी
ने अपने एक उत्पाद के विज्ञापन में अल कायदा के ख़ालिद शेख़ मोहम्मद की फ़ोटो लगा
दी. इस कॉस्मेटिक्स कंपनी ने इस चित्र के साथ यह लिखा है, ' बाल अपने आप नहीं झड़ेंगे. जबकि ख़ालिद इन
दिनों ग्वांतोनामो बंदीगृह में हैं. बाद में जब हंगामा हुआ तो सफाई में कंपनी का
कहना था उसने इस फ़ोटो का प्रयोग उनके शरीर के घने बालों की वज़ह से किया उनकी
आतंकी गतिविधियों की वज़ह से नहीं यही बेहूदगी और गैरजिम्मेदारी हमारे यहाँ भी दिखती है. कुछ अरसा पहले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा
नाको के बनाये कंडोम से जुड़े विज्ञापनों को लेकर खासा हंगामा हुआ था. कई
विज्ञापनों की कड़ी में एक विज्ञापन में मां अपने बेटे के दराज में
कंडोम देखकर खुश होती है और कहती है मेरा बेटा बड़ा हो गया. ऐसे ही बेसहारा बच्चों को रोजगार का प्रशिक्षण देने के लिए चंदा इकठ्ठा करने के मकसद
से बनाए गए दिल्ली पुलिस के विज्ञापन में लिखी पंक्तियाँ कुछ यों थी, ‘इससे पहले की कोई इसे सर काटना सिखाए, आप इसे प्याज काटना सिखाने में मदद करें’. हालाँकि दिल्ली पुलिस युवा फाउंडेशन के इस विज्ञापन पर दिल्ली बाल अधिकार सुरक्षा अयोग
और कई अन्य बाल अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध जताए जाने के बाद दिल्ली पुलिस
ने इस विज्ञापन को वापस ले लिया. लेकिन इन तमाम विज्ञापनों में विवाद की चाशनी में
सेक्स, अंधविश्वास और आकामकता को बढ़ावा देनी की मानसिकता साफ़ झलकती है.
राजनीति में विज्ञापन
सियासी मोर्चे पर भी विज्ञापनों को लेकर विवाद और प्रतिस्पर्धा का आलम देखने को मिल जाता है. आम चुनाव से पहले एक विज्ञापन के नारे को लेकर कांग्रेस और भाजपा में ठन गयी थी. दरअसल अखबारों में कांग्रेस का एक विज्ञापन छपा, जिसके जरिए राहुल गांधी देश को मैं नहीं, हम का संदेश दे रहे थे. विज्ञापन के चर्चा में आते ही भाजपा की तरफ से कांग्रेस पर नकलची होने के आरोप लगने लगे. भाजपा का कहना था कि कांग्रेस व राहुल गांधी ने उनका नारा चुराया है. बीजेपी का दावा था कि मैं नहीं, हम का नारा मोदी ने फरवरी 2011 में ही दे दिया था. इसके बाकायदा साक्ष्य भी दिखाए गए. खैर यह मामला शांत पड़ता कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को लेकर एक और विज्ञापन पर बवाल तब मच गया जब पटना के अखबारों में छपे एक नकली विज्ञापन में नीतीश और मोदी एक दूसरे का हाथ पकड़े नजर आये. इस मामले को लेकर नीतेश काफी खफा हुए.
सियासी मोर्चे पर भी विज्ञापनों को लेकर विवाद और प्रतिस्पर्धा का आलम देखने को मिल जाता है. आम चुनाव से पहले एक विज्ञापन के नारे को लेकर कांग्रेस और भाजपा में ठन गयी थी. दरअसल अखबारों में कांग्रेस का एक विज्ञापन छपा, जिसके जरिए राहुल गांधी देश को मैं नहीं, हम का संदेश दे रहे थे. विज्ञापन के चर्चा में आते ही भाजपा की तरफ से कांग्रेस पर नकलची होने के आरोप लगने लगे. भाजपा का कहना था कि कांग्रेस व राहुल गांधी ने उनका नारा चुराया है. बीजेपी का दावा था कि मैं नहीं, हम का नारा मोदी ने फरवरी 2011 में ही दे दिया था. इसके बाकायदा साक्ष्य भी दिखाए गए. खैर यह मामला शांत पड़ता कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को लेकर एक और विज्ञापन पर बवाल तब मच गया जब पटना के अखबारों में छपे एक नकली विज्ञापन में नीतीश और मोदी एक दूसरे का हाथ पकड़े नजर आये. इस मामले को लेकर नीतेश काफी खफा हुए.
ऐसा ही एक और विज्ञापन जिसमें गुजरात की मुस्लिम
महिलाओं की बेहतर स्थिती की बात करते हुए उन्हें कंप्यूटर पर काम करते दिखाया गया
था, गुजरात सरकार पर भारी पड़ गया. चूंकि ये फोटो आजमगढ़ के एक कॉलेज की थी और
उन्हें एक वेबसाइट से कॉपी किया गया था, लिहाजा गुजरात सरकार ने सफाई में सारा
आरोप विज्ञापन एजेंसी पर डाल दिया.
खैर ये तो महज राजनीति में परस्पर प्रतिस्पर्धा भरे विज्ञापन थे लेकिन असली समस्या उन सरकारी विज्ञापनों से है जिनकी आड़ में व्यक्तिगत या पार्टी का प्रचार होने लगता है. मसलन किसी सरकारी योजना को सरकारी के बजाये किसी ख़ास राजनीतिक व्यक्ति के नाम से प्रचारित करना. इसी के चलते वरिष्ठ शिक्षाविद माधव मेनन की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने एक सार्थक कदम उठाते हुए सिफारिश की थी कि सरकारी विज्ञापनों में छिपे राजनीतिक संदेश और सरकार के संदेशों में स्पष्ट अंतर होना चाहिए. समिति का कहना था कि कई बार सरकारी विज्ञापनों में सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने के साथ-साथ इस धन का प्रयोग सत्तारूढ़ दल के व्यक्तियों की छवि निखारने में भी होता है. लिहाजा इन खर्चों की लेखा परीक्षा होनी चाहिए. आये दिन अखबारों में पूरे पूरे पन्नों में छपे सरकारी विज्ञापन देखकर समझा जा सकता है कि उनमें किसकी पब्लिसिटी की जा रही है.
खैर ये तो महज राजनीति में परस्पर प्रतिस्पर्धा भरे विज्ञापन थे लेकिन असली समस्या उन सरकारी विज्ञापनों से है जिनकी आड़ में व्यक्तिगत या पार्टी का प्रचार होने लगता है. मसलन किसी सरकारी योजना को सरकारी के बजाये किसी ख़ास राजनीतिक व्यक्ति के नाम से प्रचारित करना. इसी के चलते वरिष्ठ शिक्षाविद माधव मेनन की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने एक सार्थक कदम उठाते हुए सिफारिश की थी कि सरकारी विज्ञापनों में छिपे राजनीतिक संदेश और सरकार के संदेशों में स्पष्ट अंतर होना चाहिए. समिति का कहना था कि कई बार सरकारी विज्ञापनों में सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने के साथ-साथ इस धन का प्रयोग सत्तारूढ़ दल के व्यक्तियों की छवि निखारने में भी होता है. लिहाजा इन खर्चों की लेखा परीक्षा होनी चाहिए. आये दिन अखबारों में पूरे पूरे पन्नों में छपे सरकारी विज्ञापन देखकर समझा जा सकता है कि उनमें किसकी पब्लिसिटी की जा रही है.
एड नगरी की माया अपरमपार है जी. |
धर्म की मार्केटिंग राजनीति की तरह धरम भी कुछ ख़ास
पण्डे पुजारियों और बाबाओ की लिए कमाई का बड़ा साधन बन चुका है. कई तथाकथित संतों
ने बाकायदा धार्मिक चैनलों में पैसा लगा है ताकि उनकी धर्म की दुकान का प्रचार 24
घंटे बिना किसी की रोकटोक के चलता रहे. इन चैनलों में उनके धार्मिक प्रवचनों से लेकर
उनके आश्रमों में बनाये जा रहे आयुर्वेदिक उत्पादों का भी विज्ञापन होता है. और
जिन के पास खुद का चैनल नहीं वे के मोटी रकम कखर्च कर बड़े बड़े चैनलों पर बड़ा स्लॉट
खरीदकर अपने चमत्कारों का बखान कर लोगों को भरमाते हैं. फिर चाहे वो बाबा राम देव और
उनका पतंजलि संस्थान हो या फिर निर्मल बाबा का फर्जी समागम. लोगों को दुःख दूर
करने के नाम पर एक घंटे का निर्मल बाबा का समागम अंधविश्वास और चमत्कार को बढ़ावा देने
के अलावा और कुछ नहीं करता. निर्मल बाबा का समागम कार्यक्रम तो करीब 40 टीवी चैनलो पर प्रसारण होता है. इसके अलावा
कई छद्म आस्था की ऐड में चमत्कारी उत्पाद
मसलन हनुमान यन्त्र, लक्ष्मी यन्त्र और न जाने कौन कौन से भगवान के लोकेट भजन बजा
बजा कर बेचे जाते हैं. दुःख की बात तो यह है इन पाखंडियों की दूकान सजाने और चलाए
रखने का काम आजकल मनोज कुमार, गोविंदा और आलोक नाथ जैसे सीनिअर अभिनेता कर रहे
हैं. चंद पैसों के लिए ये अपने प्रसंशकों को गुमराह करने से भी नहीं चूकते.
अश्लीलता का पुट (नारी काया की माया)
चाहे पुरुष जूतों का विज्ञापन हो या फिर अंडरविअर
या शेविंग क्रीम का, इनमें पुरुष से ज्यादा महिला मॉडल कामुकता परोसती नजर आयेंगी. पता नहीं क्यों बगैर
सेक्सी लड़की को दिखाए विज्ञापन पूरा ही नहीं होता है. ब्लेड से लेकर ट्रक तक के
विज्ञापन में नारी काया की माया का सहारा लिया जा रहा है. जैसा कि रिबॉक जूतों के
विज्ञापन को ही ले लीजिये. इसमें एक न्यूड मॉडल ने एक जोड़ी जूतों के अलावा पूरे
शरीर पर कुछ भी नहीं पहना था. फूहड़ और अश्लीलता से लबरेज इस विज्ञापन में शायद ही
किसी की नजर जूतों पर गयी हो. अक्टूबर 1991 की डेबोनियर पत्रिका में मार्क रॉबिंसन
और पूजा बेदी के अश्लील विज्ञापन पर भी काफी शोरशराबा हुआ था. मिलिंद सोमन और मधु
सप्रे पर नग्नावस्था में फिल्माया गया एक शू कंपनी का विज्ञापन तो बहुचर्चित ही है.
इसी तर्ज पर अमरीका की एक बडी वस्त्र निर्माता कंपनी ने अपने प्रचार के लिए एक
अमरीकी-बांग्लादेशी मॉडल को बहुत हद तक टॉपलेस दिखा कर उसके ब्रेस्ट पर मेड इन
बांग्लादेश का ठप्पा लगा दिया. इस बेहद अश्लील और द्विअर्थी विज्ञापन को सरेआम
होर्डिंग में लगाकर बड़े बच्चों सबकी नजरों से गुजारा गया और तो और ऐसा ही फूहड़
हरकत एक 62 साल की मॉडल के साथ भी दोहराई जा चुकी है. किसी सामान को बेचने के लिए
सेक्स और अश्लीलता परोसने की मानसिकता समझ से परे हैं. सबको पता है कि दाढ़ी केवल
मर्द बनाते हैं लेकिन इन सारी चीजों को बेचने के लिए जिलेट जैसी बड़ी कंपनियां
चित्रांगदा और नेहा धूपिया जैसी सेक्सी और बोल्ड अभिनेत्रियों को साइन कर रही हैं.
तो क्या इसके पीछे आप कामुकता को नहीं मानते हैं.
ब्रिटेन में तो एक मोबाइल फोन ऐप न्यूड
स्कैनर का टीवी विज्ञापन एक प्रमुख टीवी शो के बीच
में दिखाए जाने के बाद उस विज्ञापन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि इसमें न
सिर्फ महिलाओं को नीचा दिखाया जा रहा था बल्कि टीवी पर उसे बच्चे भी देख रहे थे
लेकिन हमारे यहाँ ऐसे विज्ञापन प्राइम टाइम
पर पूरे परिवार को बेधड़क दिखाए जाते हैं. सबसे बेतुकी बात तो हर विज्ञापन में
महिला को ऑब्जेक्ट बनाकार परोसना है. भले ही औरत को सेक्सुअल रूप में पेश करने
वाला दुनिया का पहला विज्ञापन अमेरिकी महिला ने ही बनाया हो लेकिन इस मामले में अब
भारत सभी मुल्कों को पीछे छोड़ता नजर आ रहा है.
तू तू मैं मैं और मुनाफे की जंग |
ब्रांड वॉर और बढ़ता बाजार
एक अनुमान के अनुसार भारत में सिर्फ टेलीविज़न
विज्ञापन का बाज़ार क़रीब 19 अरब डॉलर का है. एक्सपर्ट मानते हैं कि इस
हिसाब से यह बाज़ार आने वाले एक दो सालों में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार बन
जाएगा. बिजनेस अख़बार मिंट की एक
रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016 तक ये आंकड़ा 54 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा. दिलचस्प बात है कि
विज्ञापन बाजार में करीब 10,000 करोड़ रुपए की सबसे बड़ी हिस्सेदारी एफएमसीजी
कंपनियों की ही है. जबकि दूसरा स्थान व्हाइट गुड्स (टीवी, फ्रिज, एसी आदि) कंपनियों की है, जो विज्ञापन पर
सालाना 4,000-5,000 करोड़ रुपए खर्च करती हैं. इन आंकड़ों से समझा
जा सकता है कि देश में विज्ञापन का बिजनेस कितना चरम पर है.
एड वर्ल्ड के बढ़ते बाजार में अब तक हम
प्रिंट, टीवी की प्रमुख भूमिका मानते आयें है लेकिन बीते कुछ सालों इंटरनेट के
जरिये विज्ञापन की अलग और बड़ी दुनिया बन चुकी है. कंडोम, सुई से लेकर घर पर पिज़्ज़ा
भी आजकल ऑनलाइन माध्यमों के जरिये मंगवाने का चलन है. लिहाजा बाज़ार का विज्ञापन इस
माध्यम पर भी करोड़ों लुटा रहा है. मसलन स्नैपडील,
फ्लिपकार्ट और अमेजन डॉट कोम आये दिन विज्ञापन पर करोड़ों खर्च करती हैं. ई कॉमर्स
श्रेणी के इस नए बिजनेस के बदौलत बाजार में ब्रांड एस्टेब्लिशमेंट करने को लेकर प्रतिस्पर्धा
और आक्रामक विज्ञापन का नया दौर सा शुरू हो गया है. हर ब्रांड प्रतिद्वंदी ब्रांड
को सस्ता और हल्का बाते के लिए विज्ञापन के नए नए तरीके आजमा रहा है. कभी भारी से
और डिस्काउंट की आड़ में तो कभी लकी विजेता स्कीम चलाकर.
हम को नहीं कुछ समझ, ज़रा समझाना.. |
यह विज्ञापन का बढ़ता प्रभाव नहीं तो और क्या
है कि जो कई उद्योगपति खुद के टेलीविजन चैनल खोल रहे है. रिलायंस और विडियोकान
द्वारा लाए जाने वाले समाचार चैनलों को भी इसी कवायद से जोड़ कर देखा जा रहा है. विज्ञापनों
से होने वाली आय और नुकसान का अंदाजा इस घटना से भी लगाया जा सकता है कि टीवी चैनल
एनडीटीवी ने टेलीविज़न ऑडियंस मेजरमेंट यानी टैम के ख़िलाफ़ ये कहते हुए मुक़दमा
दायर किया था कि उसकी गलत औडियंस की गिनती के चलते चैनल को विज्ञापन से मिलने वाली
आय का नुक़सान हो रहा है.
हालांकि इससे उत्पाद कम्पनियों के बीच ब्रांड वार की स्थिति भी पैदा ही जाती जो
अदालत तक पहुँच जाती है. जैसा कि महेंद्र सिंह धोनी और हरभजन सिंह के मामले में
हुआ था जब एक शराब कंपनी के विज्ञापन में हरभजन के ही विज्ञापन का स्पूफ किया गया
था. इस स्पूफ में मैक्डॉवेल के विज्ञापन में धोनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी परनॉड
रिकॉर्ड के ब्रांड रॉयल स्टैग के विज्ञापन में हरभजन की भूमिका का मजाक उड़ाते दिख
रहे थे. इसी नाराज होकर हरभजन और उनके परिवार ने विजय माल्या की यूबी स्पिरिट्स को
मैक्डॉवेल नंबर वन प्लेटिनम व्हिस्की के उस विज्ञापन के लिए नोटिस भेज दिया था.
इससे पहले भी कई एड वॉर के चक्कर में
सेलिब्रिटी और खिलाड़ी आपस में उलझ चुके हैं. कुछ साल पहले आमिर की फिल्म डेल्ही
बैली में एक कार का कथित रूप से मज़ाक उड़ाए जाने पर विवाद खड़ा हो गया था. आरोप था
कि फिल्म में जानबूझ कर उस कार का इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि एक अन्य
हीरो शाहरु़ख खान इस कंपनी की कार का प्रचार करते हैं. ऐसा ही वाकया डिटर्जेंट
कंपनियों के मामले में दिखाई दिया. जब हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड (एचयूएल) के
प्रोडक्ट रिन डिटर्जेंट और प्रॉक्टर एंड गैंबल (पी एंड जी) कंपनी के प्रोडक्ट टाइड
डिटर्जेंट के विज्ञापन ने ब्रांड वॉर छेड़ दिया था. उस दौरान भी पी एंड जी ने
एचयूएल के खिला़फ याचिका दायर कर दी थी. ऐसा ही विवाद कोलगेट और हिंदुस्तान लीवर्स,
हॉर्लिक्स और कॉम्प्लान के बीच हो चुका है.
क्या बेचा जा रहा है, कुछ खबर नहीं. |
विज्ञापन और सेंसर
जो लोग सिनेमाहाल में फिल्में देखते हैं
उन्हें पता है फिल्म से पहले दिखाए जाने वाली विज्ञापन बाकायद सेंसर सर्टिफिकेट के
साथ प्रसारित होते हैं. यानी उन्हें भी सेंसर बोर्ड के पास कांटछांट के लिए भेजा
जाता है. ताजुब की बात है कि सेंसर बोर्ड की कैंची फिल्मों को सामाजिक दुष्प्रभाव वाले
कंटेंट के चलते क़तर देती है लेकिन विज्ञापनों को नहीं कतरती जो दिन में सैकड़ों बार
हर आयु वर्ग के दर्शकों को दिखाए जाते हैं. केबल और डीटीएच के इस दौर में दिन-रात
विज्ञापनों से ही टीवी चैनल्स की कमाई होती है. ऐसे में सभी तरह के अनसेंसर्ड
कमर्शियल विज्ञापन, (ख़ास तौर पर निर्मल बाबा और लक्ष्मी यन्त्र जैसे अंधविश्वास
फैलाने वाले) दिनरात प्रसारित होते रहते हैं. हालांकि कुछ वक्त पहले एक दर्शक की
शिकायत पर बोर्ड ने अंडरवियर के दो विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया था. इन
विज्ञापनों में एक मॉडल अंडरवियर को धोते हुए अश्लील एक्प्रेशन देती है. इसी तरह
एक डियोड्रेंट का विज्ञापन भी उत्तेजकता की अति के चलते बैन किया गया. यहां ग़ौर
करने वाली बात यह है कि उक्त सभी प्रतिबंध जनता की शिकायत के बाद लगाए गए. मतलब यह
कि उससे पहले बोर्ड को कोई सुध ही नहीं थी.
ग़ौरतलब है कि इसे भी बैन किया गया था. लेकिन
आज ऐसे सैकड़ों विज्ञापन हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे हैं और बोर्ड खामोश है.
जब कोई जागरूक दर्शक अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी के नाते शिकायत दर्ज कराता है, तब जाकर बोर्ड
की नींद टूटती है. छोटे निर्माताओं की फिल्मों एवं विज्ञापनों के लिए बोर्ड को
सारे क़ानून और सांस्कृतिक मूल्य याद आ जाते हैं, जबकि बड़े निर्माताओं की फिल्मों में
क्रिएटिविटी, कला की दृष्टि या कहानी की मांग का बहाना
बनाकर कुछ भी दिखा दिया जाता है. यही वजह है कि आज लोग सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता
पर सवाल उठाने लगे हैं.
विज्ञापन से जुडा रेसिज्म का मसला |
कहा जा सकता है कि विज्ञापन सूचना देने का
जरिया होते हैं लेकिन यह अवधारणा अब पूरी तरह से खंडित हो चुकी है. आज तो विज्ञापन
का बाजारू करोबार जो दिखता है वही बिकता है के तर्ज पर चल रहा है. मांग और आपूर्ति की
अवधारणा को तोड़ते हुए अब मांग पैदा करने पर जोर है. आज विज्ञापन का मूल उद्देश्य
सूचना प्रदान करने की बजाए उत्पाद विशेष के लिए बाजार तैयार करना बन कर रह गया है. काश उत्पादकों और
विज्ञापन निर्माताओं को एहसास होता कि वे अपने लक्ष्यों को पाने की एवज में वह
अपने नैतिक कर्तव्य को ना नकारें बल्कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी समझें.
---- RAJESH S. KUMAR
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