अमोल गुप्ते निर्देशन के उद्देश्य से तारे ज़मीं पर की कहानी लेकर किसी निर्माता के बजाय आमिर सरीखे अभिनेता के पास पहुंचते हैं. आमिर को कहानी पसंद आती है और वह अभिनय के साथ-साथ बतौर निर्माता फिल्म से जुड़ जाते हैं. प्रोडक्शन के बीच में ही आमिर अमोल को बाहर करके खुद निर्देशक की कैप संभाल कर मुना़फे के साथ-साथ अवाड्र्स से अपनी झोली भर लेते हैं. यह हालत है आज निर्देशकों की. कल तक जो अभिनेता रोल मांगने के लिए उनके आगे-पीछे घूमते थे, आज वे खुद को निर्माताओं-निर्देशकों का आका समझ रहे हैं. वे भूल गए हैं कि स्टारडम का जो नशा उन पर हावी है, वह उन्हीं निर्माताओं-निर्देशकों की ही देन है.
श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्माता-निर्देशक आज भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं, लेकिन ये कमर्शियल सिनेमा की परिधि से बाहर रहे. 16 एमएम का सिनेमा 35 और 70 एमएम से गुज़रता हुआ जब आईमैक्स फॉर्मेट तक पहुंचा तो इस दरम्यान बहुत कुछ बदल चुका था. तकनीक , आर्थिक ढांचे और सिनेमा के प्रति समाज का नज़रिया भी बदल गया. जो खुद को ढाल पाया, वही टिका. अगर मौजूदा हालात के कारणों की बात करें तो असल कारण बाज़ार का बदलाव ही रहा.
निर्माता-निर्देशक और अभिनेता वे महत्वपूर्ण कड़ियां हैं, जिन पर हिंदी सिनेमा की नींव टिकी है, लेकिन आज येकमज़ोर होती जा रही हैं. कभी अभिनेताओं को खोजकर और उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाकर रुपहले पर्दे पर उतारने वाले फिल्म निर्माता आज उन्हीं के हाथों की कठपुतली बनने के लिए मज़बूर हैं. आमिर, शाहरु़ख, ऐश्वर्या एवं अक्षय जैसे सितारे आज खुद निर्देशक और कहानी चुनते हैं. इन्हें पर्दे पर उतारने वाले इनके गॉड फादर क्रमश: मंसूर खान, राजकंवर, राहुल रवैल एवं प्रमोद चक्रवर्ती पर्दे की चकाचौंध में कहीं खो गए हैं. ज़्यादातर निर्माता-निर्देशक अब किसी साइड बिजनेस के ज़रिए रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं या फिर मु़फलिसी में जी रहे हैं. सुभाष घई जैसा शोमैन अब बड़े सितारों के भरोसे मुक्ता आटर्स को बचाने की फिराक़ में है. यूटीवी एवं श्री अष्टविनायक जैसी कारपोरेट कंपनियां अभिनेताओं को मुंहमांगी रक़म और मुना़फे में हिस्सेदारी देकर निर्माण के क्षेत्र में टिकी हुई हैं.
लेकिन हालात एकदम से नहीं बदले. इस बदलाव को समझने के लिए अभिनेता और निर्माता-निर्देशकों के रिश्तों को शुरुआत से समझना होगा. 7 जुलाई 1896 को बॉम्बे में ल्युमियर बंधु जब अपनी पहली सिनेमेटोग्राफी एग्जिविसन दिखा रहे थे (जो भारत की कथित तौर पर पहली फीचर फिल्म है), तब तक अभिनेता पैदा नहीं हुए थे. जब प्रिंटिंग, पेंटिंग एवं जादूगरी में माहिर दादा साहेब फाल्के ने 1913 में राजा हरिश्चंद्र रची, तब तक स़िर्फ निर्माता-निर्देशक ही सिनेमा को स्थापित करने की ज़द्दोजहद में जुटे हुए थे. निर्माण के दौरान अभिनेताओं की आवश्यकता महसूस हुई. वेश्याएं और भांड तक फिल्म में अभिनय के लिए राजी नहीं थे. हिंदी सिनेमा के पहले निर्माता-निर्देशक फाल्के ने विज्ञापन दिया कि जो भी व्यक्ति अभिनय का इच्छुक हो, वह उनसे संपर्क करे. इस तरह अभिनेता अस्तित्व में आए. 1940 की घटना है. बॉम्बे टॉकीज ने डालडा की एड फिल्म बनाई, जो संभवत: पहली भारतीय एड फिल्म थी. उसमें काम करने वाली सुमीत नाइक नामक एक अभिनेत्री को चाल के लोगों ने यह कहकर निकलवा दिया कि यहां शरी़फ लोग रहते हैं. तब अभिनेता अभिनेत्रियों को वेश्या और भांड का पर्याय मानते थे. हमने फाल्के और डालडा का ज़िक्र स़िर्फ यह बताने के लिए किया कि उस समय अभिनेता-अभिनेत्रियों की क्या हैसियत थी. आज के कलाकार स्टारडम के नशे में चूर हैं, लेकिन तब वे अपने अस्तित्व के लिए तरस रहे थे. फाल्के जैसे निर्माता-निर्देशकों ने सिनेमा को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए घर का सामान बेचा, अभिनेता खोजे और उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाईं, तब जाकर पर्दे पर दिखने वाला रंगा-पुता कलाकार स्टार कहलाया. जबकि वे खुद पर्दे के पीछे साइलेंट मेकर का रोल अदा करते रहे.
1930 तक हिंदी सिनेमा एक छोटी और कमाऊ इंडस्ट्री में तब्दील हो चुका था. फिर स्टूडियो सिस्टम शुरू हुआ. बॉम्बे टॉकीज, प्रभात फिल्म कंपनी, वाडिया मूवीटोन और मद्रास टॉकीज आए. अभिनेताओं को इन स्टूडियो में मासिक वेतन मिलता था. 1940 के आसपास स्टूडियो सिस्टम टूटा और अभिनेता अपना मेहनताना खुद तय करने लगे. इसी दौरान फॉर्मूला फिल्मों और उनमें काले धन का आगमन हुआ. देखते ही देखते अभिनेता साइनिंग अमाउंट मांगने लगे. 50 के दशक में सोहराब मोदी, राजकपूर, गुरुदत्त और देवानंद स्टार बनकर उभरे. बढ़ता स्टार पावर और फिल्मों का बढ़ता बाज़ार देखते हुए अभिनेता खुद निर्माता-निर्देशक बनने लगे. राजकपूर शोमैन बन गए, जबकि देवानंद अपने बैनर नवकेतन के लिए आज भी फिल्में निर्देशित कर रहे हैं. इसी दौर में निर्माता-निर्देशक के हाथों बने सुपर स्टार उन्हीं के हाथों से फिसलने लगे. राजकपूर का रुतबा रूस तक पहुंच गया. सिनेमाई संस्था का ढांचा टूटने लगा. निर्माता-निर्देशकों के दफ्तरों के चक्कर काटने वाले अभिनेताओं के घरों पर निर्माता-निर्देशक कतार लगाने लगे. साइनिंग अमाउंट की जगह वे मुना़फे में हिस्सा मांगने लगे. कभी मुगल-ए-आज़म को के आसिफ, मदर इंडिया को महबूब खान की फिल्म बताने वाले दर्शक और मीडिया आज दबंग को सलमान और सिंह इज किंग को अक्षय की फिल्म बता रहे हैं. अभिनव, अनीज़ और हिरानी के नाम बाद में आते हैं. यह ट्रेंड बताता है कि बनाने वाले ही खुद अपनी पहचान को तरस रहे हैं.
हालांकि 1970 के दशक के कुछ निर्माता-निर्देशक इस बदलाव से बचे रहे. श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्माता-निर्देशक आज भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं, लेकिन ये कमर्शियल सिनेमा की परिधि से बाहर रहे. 16 एमएम का सिनेमा 35 और 70 एमएम से गुज़रता हुआ जब आईमैक्स फॉर्मेट तक पहुंचा तो इस दरम्यान बहुत कुछ बदल चुका था. तकनीक , आर्थिक ढांचे और सिनेमा के प्रति समाज का नज़रिया भी बदल गया. जो खुद को ढाल पाया, वही टिका. अगर मौजूदा हालात के कारणों की बात करें तो असल कारण बाज़ार का बदलाव ही रहा. अभिनेता निर्माता-निर्देशकों से पहले बाज़ार की बाजीगरी समझ गए. जब वे प्रतिभा और तकनीक तलाशने में लगे रहे, तब अभिनेता खुद को बड़े ब्रांड के तौर पर स्थापित करते रहे. आज इस ब्रांड का क़द इतना बढ़ गया है कि इसे बनाने वाले भी बौने साबित हो गए. ग़लती निर्माता-निर्देशकों की भी है. अधिक मुना़फा कमाने के लिए स्थापित कलाकारों पर निर्भरता, स्क्रिप्ट और तकनीक में दखलंदाज़ी के चलते ही ऐसी स्थिति पैदा हुई. कॉरपोरेट घरानों के फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूदने से भी इनकी साख घटी. इसके अलावा मीडिया की इमेज मेकिंग पॉलिसी भी ज़िम्मेदार है. कुल मिलाकर जिन निर्माता-निर्देशकों ने आर्थिक निवेश के ज़रिए फिल्में बनाईं, सितारे बनाए, वे फर्श पर हैं और अभिनेता अर्श पर. दरअसल सिनेमा भी एक औद्योगिक संस्था है. अभिनेता इस संस्थागत ढांचे को तोड़-मरोड़ कर खुद को तराशने वालों को ही गुमनामी के अंधेरे में ढकेल रहे हैं.
----RAJESH S. KUMAR
No comments:
Post a Comment