Wednesday, November 3, 2010
सेंसर शब्द ही बेमानी है
इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारे यहां सेंसर बोर्ड स़िर्फ सतही तौर पर फिल्मों और सर्टिफिकेट की भूलभुलैया में उलझा रहता है, जबकि समस्या की जड़ कुछ और है. सेंसर सामाजिक दुष्प्रभाव की बात करता है. इसी के आधार पर वह उन सभी मसालों को आम लोगों तक पहुंचने से रोकने का ढिंढोरा पीटता है, जो संस्कृति के खिला़फ हो. लेकिन इन्हें रोकने में वह कितना सफल होता है, यह सर्वविदित है. पिछले तीन अंको में हमने उन मसलों और कंटेंट पर बात की थी जो सेंसर के अपारदर्शी काले चश्मे से गुज़रते हैं. इस आ़िखरी कड़ी में सेंसर के लापरवाह रवैये और उन अनसेंसर्ड जरियों की बात करेंगे जिन्हें न तो बोर्ड सेंसर करता है और न ही ऐसा करना उसके लिए संभव है. असंभव इसलिए नहीं है कि वह कुछ कर नहीं सकता, बल्कि इसलिए किवह कुछ करना ही नहीं चाहता. असलियत यह है कि इनकी धार सेंसर की कैंची से ज़्यादा तेज़ है.
ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि बोर्ड सिर्फ अश्लील और हिंसात्मक दृश्यों को सेंसर करने के लिए बना है. जानकारी के लिए बता दें कि सेंसरसिप के कुछ मापदंड हैं. फिल्में 4 श्रेणियों- यू, यू/ए, ए और एस में वर्गीकृत की जाती हैं. संक्षिप्त में समझें तो यू श्रेणी के सर्टिफिकेट की फिल्म सभी दर्शकों के लिए होती है. यू/ए श्रेणी की फिल्म वयस्क के अलावा अभिभावक की मौजूदगी में बच्चे भी देख सकते हैं. ए यानी एडल्ट फिल्में स़िर्फ वयस्कों के लिए होती हैं और आ़िखरी श्रेणी एस के अंतर्गत सेंसर्ड फिल्में डॉक्टरों समेत एक विशेष दर्शक वर्ग के लिए होती हैं.
देश में फिल्मों के अलावा पोर्न और पायरेटेड फिल्मों का बाज़ार, इंटरनेट का वृहत संसार, हॉलीवुड फिल्मों का गैरसंपादित ऑनलाइन वितरण, अश्लील साहित्य, येलो जर्नलिज्म, सैटेलाइट चैनलों का सीधा अनकट प्रसारण जैसे कई ऐसे माध्यम हैं जो लोगों की आम दिनचर्या में शुमार हो गए हैं. इन माध्यमों से प्रचारित और प्रसारित होने वाला कंटेंट हर बच्चे की पुहंच में है और फिल्मों से कहीं ज़्यादा वल्गर और दुष्प्रभावी होता है. इतने सारे माध्यमों के आगे सेंसर बौना सा प्रतीत होता है. ऑन लाइन पाइरेसी के माध्यम से देशी-विदेशी फिल्मों के अनसेंसर्ड प्रिंट डाउनलोड किए जाते है. इंटरनेट पर हज़ारों अश्लील वेबसाइट मौजूद हैं. भारत में इंटरनेट सेवाओं का प्रयोग करने वाले जानते होंगे की हिंदी की पहली सॉफ़्ट-पॉर्न कॉमिक कैरेक्टर पर बेस्डीर्रींळींरलहरलहळ.लेा साइट को रणवीर कपूर विवाद के बाद भारत सरकार ने बैन कर दिया है. लेकिन वो यह भी जानते होंगे कि सविता भाभी जैसी कई और देशी-विदेशी साइट्स इंटरनेट के 80 फीसदी हिस्से में मौजूद हैं. सेंसर बोर्ड भी यह अच्छी तरह जानता है, लेकिन कुछ नहीं करता. रही बात क़ानून की तो सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि भारत में साइबर लॉ में प्रावधान इतने कड़े नहीं हैं कि इसको रोका जा सके. इसी तरह मस्तराम के देसी संस्करण और डेबोनियर से लेकर प्लेब्वॉय जैसी मैग्ज़ीन कोई भी बच्चा किसी भी दुकान से खरीद सकता है. घर में बच्चे का बोलना शुरू होता कि उसके हाथ में मोबाइल और कंम्प्यूटर थमा दिया जाता है. मोबाइल पाते ही एमएमएस स्कैंडल्स और सेक्स क्लिप का कारोबार शुरू हो जाता है. पहले से ही सिनेम से रिया-अस्मित, शाहिद-करीना और लक्ष्मी राय समेत कई अभिनेत्रियों के अश्लील एमएमएस चर्चा में रहे हैं. वेबसाइट तो औपचारिक तौर पर ही सही लेकिन 18+ की शर्त रख देती है, पर मोबाइल कंटेंट के मामले में तो यह अवरोध भी नहीं है. सिंगल स्क्रीन में चलने वाली एडल्ट फिल्मों में वयस्क और अवयस्क कोई भी घुस सकता है. हाथ में टॉर्च लिए खड़ा गेटमैन लगभग सेंसर की तरह ही बर्ताव करता है. उसे मालूम है कि नियम-क़ानून क्या हैं, फिर भी वह आंख मूंदे केवल खड़ा रहता है. इस तरह सैकड़ों ऐसे विषय और सेक्टर्स हैं जहां सेंसर की भूमिका हो सकती है पर नहीं है.
ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि बोर्ड सिर्फ अश्लील और हिंसात्मक दृश्यों को सेंसर करने के लिए बना है. जानकारी के लिए बता दें कि सेंसरसिप के कुछ मापदंड हैं. फिल्में 4 श्रेणियों- यू, यू/ए, ए और एस में वर्गीकृत की जाती हैं. संक्षिप्त में समझें तो यू श्रेणी के सर्टिफिकेट की फिल्म सभी दर्शकों के लिए होती है. यू/ए श्रेणी की फिल्म वयस्क के अलावा अभिभावक की मौजूदगी में बच्चे भी देख सकते हैं. ए यानी एडल्ट फिल्में स़िर्फ वयस्कों के लिए होती हैं और आ़खिरी श्रेणी एस के अंतर्गत सेंसर्ड फिल्में डॉक्टरों समेत एक विशेष दर्शक वर्ग के लिए होती हैं. बाकी फिल्में ग़ैर क़ानूनी रूप से प्रदर्शित होती हैं. इन चारों के अलावा सॉफ्ट और हार्डकोर पॉर्न फिल्मों की भी श्रेणी है. यह विदेशों में मान्य है, भारत में नहीं. इन श्रेणियों के अंतर्गत स़िर्फ अश्लील दृश्य ही नहीं बल्कि किसी जाति, समुदाय, राष्ट्र और धर्म विरोधी संवाद और दृश्य, अतिरेक हिंसा, महिलाओं और विकलांगों पर नकारात्मक टिप्प़णी और द्वइर्थी संवादों पर भी कैंची चलती है. इसलिए अतिरेक हिंसा वाली फिल्म भी एडल्ट सर्टिफिकेट के साथ पास होती हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि उपरोक्त श्रेणियां और क़ायदे-क़ानून स़िर्फ काग़ज़ी हैं. जिसका जितना रसूख, उतना लचीला बोर्ड.इन हाइटेक ऑप्शंस से लड़ने कि लिए भले ही सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन के सेंट्रल बोर्ड की मुख्य बैठकों में अध्यक्ष शर्मिला टैगोर बोर्ड को हाईटैक बनाने का बात कहती हों या मॉर्डनाइजेशन के युग में ऑनलाइन तरीके से सर्टिफिकेट देने की प्रकिया अपनाने की बात करती हों पर हक़ीक़त में यह स़िर्फ बैठकों में होने वाली खानापूर्ति मात्र है.
जहां देश की ऐंबेंसी का पोर्टल पोर्न वेबसाइट में तब्दील हो जाता है, वहां सेंसर के क्या मायने रह जाते हैं. जब तक उपरोक्त माध्यमों को बारीकी से समझकर सेंसर करने का रास्ता नहीं निकाला जाएगा, तब तक देश में सेंसर शब्द ही बेमानी है.
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