Saturday, September 3, 2016

रिलायंस वाला जिओ नहीं जियो पारसी का पंगा

                                                      
·         आज रात कंडोम का इस्तेमाल न करें.
·         अपनी मां से ब्रेकअप करने का क्या ये सही समय नहीं है?
·         जल्द ही शादी कर बच्चे पैदा करें, क्योंकि आपकी बेबी सिटिंग करने के लिए पैरेंट हमेशा आपके इर्दगिर्द नहीं रहेंगे. 
·         क्या तुम्हारा ब्वायफ्रेंड रतन टाटा की तरह बड़ा आदमीं बनेगा? ये जज करने वाली आप कौन होती हैं?   
   निकोल किडमैन?          
  


ये और इनके जैसे और कई जुमले देश में तेजी से घटते पारसी समुदाय पर किसी और ने नहीं बल्कि अल्पसंख्यक मंत्रालय ने एक सरकारी अभियान के जरिए कसे हैं. जियो पारसी नाम का यह अभियान इन दिनों विज्ञापन के बाजार में अपनी विवादास्पद सामग्री के चलते बेहद चर्चित है. कहने को तो यह कैम्पेन पारसी समुदाय को आबादी बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के मकसद से केंद्र सरकार और निजी संस्था के साझे में चलाई जा रही जियो पारसी  स्कीम को प्रमोट करने के लिए बनाया गया है. लेकिन इनमें जिस तरह की तस्वीरें और तंज कसे गए हैं व हर किसी के गले नहीं उतरते. मसलन 40  पार अविवाहित पारसी,  जो अभी भी अपनी मां के साथ रह रहे हैं का मजाक उड़ना और कंडोम का इस्तेमाल न करने की नसीहत अदि. एक तरफ जहाँ अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला का कहना है कि इस अभियान के सकारात्मक परिणाम आये हैं और 8 पारसी महिलाओं ने गर्भधारण किया है. वहीँ पारसी समुदाय के इतिहास पर रिसर्च कर रहीं सिमिन पटेल के मुताबिक ये विज्ञापन जिस तरह का दबाव महिलाओं पर पैदा कर रहे हैं, उससे यही लगता है कि महिला का जीवन शादी या बच्चे के बिना अधूरा है. यह बेहद नाराज करने वाली पहल है.

बहरहाल, यहाँ मसला सरकारी अभियान की मंशा पर सवाल उठाना नहीं है बल्कि आये दिन विज्ञापनों की कथावस्तु  और फिल्मांकन में अश्लीलता, विवादास्पद संवाद, आक्रामकता, प्रतिस्पर्धा की आड़ में व्यकितगत हमला और सनसनीखेज तत्वों की बढ़ती प्रवत्ति है. इन दिनों टीवी और अखबार पर आ रहे विज्ञापनों में ज्यादातर उपभोक्ता को उत्पाद की जानकारी देने के अलावा बाकी सब कुछ बताया और दिखाया जाता है. फिर चाहे वो किस जूते के विज्ञापन में किसी महिला के नंगे बदन की नुमाइश हो, किसी कंडोम के विज्ञापन में कौफी, स्ट्राबेरी के फ्लेवर की बात हो, फलां ब्रांड न इस्तेमाल करने वाले को पिछड़ा बताना हो या धर्म की आड़ में किस्मत चमकाने वाले मंत्र, सिद्धि यन्त्र और हनुमान लोकेट के फर्जी दावे हों. कई बार तो एड फिल्म की आड़ में उन्हें बरगलाया या उकसाया तक जाता है.

रफ्यूम से इरोटिक कुछ और होता है क्या?
एक परफ्यूम का विज्ञापन देखिये, इसमें एक नवविवाहित महिला उस ब्रांड की खुशबू से इतनी बहक जाती है कि अपने पति को छोड़ सामने वाले की तरफ काम यौनेक्षा से आकर्षित होने लगती है. ऐसे ही अगर आप टूथपेस्ट में नमक या क्रिस्टल नहीं है तो फिर आप का मंजन कूड़ा है. इसी अंदाज़ में बनियान को किस्मत की चाबी बताने वाला विज्ञापन सनी देओल और जोनी लीवर से कहलवाता है कि अपना लक पहन के चलो. यानी बनियान नहीं आपकी किस्मत है, जिसकी कीमत 100 रूपए से भी कम है. सोचने वाली बात है कि बनियान को किस्मत की चाबी बताने वाली अभिनेता सनी देओल और जोनी लीवर खुद के करियर के बुरे दौर से गुजर रहे हैं. कहने का मतलब यह है जो खुद अपनी किस्मत चमकाने के लिए ऐसे विज्ञापनों का सहारा ले रहे हैं, उनके जरिये बेची जाने वाली बनियानें कैसे किसी की किस्मत चमका सकती हैं?     

विवाद, विज्ञापन और बिक्री
मॉस कम्युनिकेशन के कोर्स के दौरान हमें पढाया जाता था कि बिना विज्ञापन के किसी सामान को बेचना अँधेरे में किसी लडकी को आंख मारने जैसा है. यानी आपके सामान की बिक्री और आपका प्रयोजन बिना प्रचार के हल नहीं हो सकता. साथ ही कोर्स की किताबों में विज्ञापन के नाम का पूरा चेप्टर है. इस चेप्टर में विज्ञापन की परिभाषा का मुख्य सार यही है कि उपभोक्ता तक पहुचने के लिए जो तरीका अपनाना पड़े, अपनाए, क्योंकि बिना चर्चा के उत्पाद बिकना संभव नहीं है. शायद इसीलिए आज का विज्ञापन बाजार किसी भी प्रोडक्ट को बेचने के लिए गुणवत्ता का सहारा नहीं बल्कि विवादों (चर्चा) का सहारा लेना पसंद करता है. इसका सीधा फायदा तो यह होता है कि सम्बंधित उत्पाद चर्चा का केंद्र बन जाता है और मुफ्त की पब्लिसिटी हो जाती है. लेकिन जब इन अश्लील और विवादित विज्ञापनों को 5 साल का बच्चा घर पर टीवी में देखता है तो उसके दूरगामी नुकसान समझ में आते हैं. 

इनको भी नहीं छोड़ा.
तुर्की की हेअर रिमूवर क्रीम बेचने वाली कम्पनी ने अपने एक उत्पाद के विज्ञापन में अल कायदा के ख़ालिद शेख़ मोहम्मद की फ़ोटो लगा दी. इस कॉस्मेटिक्स कंपनी ने इस चित्र के साथ यह लिखा है, ' बाल अपने आप नहीं झड़ेंगे. जबकि ख़ालिद इन दिनों ग्वांतोनामो बंदीगृह में हैं. बाद में जब हंगामा हुआ तो सफाई में कंपनी का कहना था उसने इस फ़ोटो का प्रयोग उनके शरीर के घने बालों की वज़ह से किया उनकी आतंकी गतिविधियों की वज़ह से नहीं यही बेहूदगी और गैरजिम्मेदारी हमारे यहाँ भी दिखती है. कुछ अरसा पहले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा नाको के बनाये कंडोम से जुड़े विज्ञापनों को लेकर खासा हंगामा हुआ था. कई विज्ञापनों की कड़ी में एक विज्ञापन में  मां अपने बेटे के दराज में कंडोम देखकर खुश होती है और कहती है मेरा बेटा बड़ा हो गया. ऐसे ही बेसहारा बच्चों को रोजगार का प्रशिक्षण देने के लिए चंदा इकठ्ठा करने के मकसद से बनाए गए दिल्ली पुलिस के विज्ञापन में लिखी पंक्तियाँ कुछ यों थी, इससे पहले की कोई इसे सर काटना सिखाए, आप इसे प्याज काटना सिखाने में मदद करें. हालाँकि दिल्ली पुलिस युवा फाउंडेशन के इस विज्ञापन पर दिल्ली बाल अधिकार सुरक्षा अयोग और कई अन्य बाल अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध जताए जाने के बाद दिल्ली पुलिस ने इस विज्ञापन को वापस ले लिया. लेकिन इन तमाम विज्ञापनों में विवाद की चाशनी में सेक्स, अंधविश्वास और आकामकता को बढ़ावा देनी की मानसिकता साफ़ झलकती है.


राजनीति में विज्ञापन
सियासी मोर्चे पर भी विज्ञापनों को लेकर विवाद और प्रतिस्पर्धा का आलम देखने को मिल जाता है. आम चुनाव से पहले एक विज्ञापन के नारे को लेकर कांग्रेस और भाजपा में ठन गयी थी. दरअसल अखबारों में कांग्रेस का एक  विज्ञापन छपा, जिसके जरिए राहुल गांधी देश को मैं नहीं, हम का संदेश दे रहे थे. विज्ञापन के चर्चा में आते ही भाजपा की तरफ से कांग्रेस पर नकलची होने के आरोप लगने लगे. भाजपा का कहना था कि कांग्रेस व राहुल गांधी ने उनका नारा चुराया है. बीजेपी का दावा था कि मैं नहीं,  हम  का नारा मोदी ने फरवरी 2011 में ही दे दिया था. इसके बाकायदा साक्ष्य भी दिखाए गए. खैर यह मामला शांत पड़ता कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को लेकर एक और विज्ञापन पर बवाल तब मच गया जब पटना के अखबारों में छपे एक नकली विज्ञापन में नीतीश और मोदी एक दूसरे का हाथ पकड़े नजर आये. इस मामले को लेकर नीतेश काफी खफा हुए.  
ऐसा ही एक और विज्ञापन जिसमें गुजरात की मुस्लिम महिलाओं की बेहतर स्थिती की बात करते हुए उन्हें कंप्यूटर पर काम करते दिखाया गया था, गुजरात सरकार पर भारी पड़ गया. चूंकि ये फोटो आजमगढ़ के एक कॉलेज की थी और उन्हें एक वेबसाइट से कॉपी किया गया था, लिहाजा गुजरात सरकार ने सफाई में सारा आरोप विज्ञापन एजेंसी पर डाल दिया.
खैर ये तो महज राजनीति में परस्पर प्रतिस्पर्धा भरे विज्ञापन थे लेकिन असली समस्या उन सरकारी विज्ञापनों से है जिनकी आड़ में व्यक्तिगत या पार्टी का प्रचार होने लगता है. मसलन किसी सरकारी योजना को सरकारी के बजाये किसी ख़ास राजनीतिक व्यक्ति के नाम से प्रचारित करना. इसी के चलते वरिष्ठ शिक्षाविद माधव मेनन की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने एक सार्थक कदम उठाते हुए सिफारिश की थी कि सरकारी विज्ञापनों में छिपे राजनीतिक संदेश और सरकार के संदेशों में स्पष्ट अंतर होना चाहिए. समिति का कहना था कि कई बार सरकारी विज्ञापनों में सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने के साथ-साथ इस धन का प्रयोग सत्तारूढ़ दल के व्यक्तियों की छवि निखारने में भी होता है. लिहाजा इन खर्चों की लेखा परीक्षा होनी चाहिए. आये दिन अखबारों में  पूरे पूरे पन्नों में छपे सरकारी विज्ञापन देखकर समझा जा सकता है कि उनमें किसकी पब्लिसिटी की जा रही है.


एड नगरी की माया अपरमपार है जी.
धर्म की मार्केटिंग                         राजनीति की तरह धरम भी कुछ ख़ास पण्डे पुजारियों और बाबाओ की लिए कमाई का बड़ा साधन बन चुका है. कई तथाकथित संतों ने बाकायदा धार्मिक चैनलों में पैसा लगा है ताकि उनकी धर्म की दुकान का प्रचार 24 घंटे बिना किसी की रोकटोक के चलता रहे. इन चैनलों में उनके धार्मिक प्रवचनों से लेकर उनके आश्रमों में बनाये जा रहे आयुर्वेदिक उत्पादों का भी विज्ञापन होता है. और जिन के पास खुद का चैनल नहीं वे के मोटी रकम कखर्च कर बड़े बड़े चैनलों पर बड़ा स्लॉट खरीदकर अपने चमत्कारों का बखान कर लोगों को भरमाते हैं. फिर चाहे वो बाबा राम देव और उनका पतंजलि संस्थान हो या फिर निर्मल बाबा का फर्जी समागम. लोगों को दुःख दूर करने के नाम पर एक घंटे का निर्मल बाबा का समागम अंधविश्वास और चमत्कार को बढ़ावा देने के अलावा और कुछ नहीं करता. निर्मल बाबा का समागम कार्यक्रम तो करीब 40 टीवी चैनलो पर प्रसारण होता है. इसके अलावा कई  छद्म आस्था की ऐड में चमत्कारी उत्पाद मसलन हनुमान यन्त्र, लक्ष्मी यन्त्र और न जाने कौन कौन से भगवान के लोकेट भजन बजा बजा कर बेचे जाते हैं. दुःख की बात तो यह है इन पाखंडियों की दूकान सजाने और चलाए रखने का काम आजकल मनोज कुमार, गोविंदा और आलोक नाथ जैसे सीनिअर अभिनेता कर रहे हैं. चंद पैसों के लिए ये अपने प्रसंशकों को गुमराह करने से भी नहीं चूकते.  

 
मोटे होना से बड़ा कोई गुनाह नहीं इनकी नज़रों में?
अश्लीलता का पुट (नारी काया की माया)
चाहे पुरुष जूतों का विज्ञापन हो या फिर अंडरविअर या शेविंग क्रीम का, इनमें पुरुष से ज्यादा महिला मॉडल  कामुकता परोसती नजर आयेंगी. पता नहीं क्यों बगैर सेक्सी लड़की को दिखाए विज्ञापन पूरा ही नहीं होता है. ब्लेड से लेकर ट्रक तक के विज्ञापन में नारी काया की माया का सहारा लिया जा रहा है. जैसा कि रिबॉक जूतों के विज्ञापन को ही ले लीजिये. इसमें एक न्यूड मॉडल ने एक जोड़ी जूतों के अलावा पूरे शरीर पर कुछ भी नहीं पहना था. फूहड़ और अश्लीलता से लबरेज इस विज्ञापन में शायद ही किसी की नजर जूतों पर गयी हो. अक्टूबर 1991 की डेबोनियर पत्रिका में मार्क रॉबिंसन और पूजा बेदी के अश्लील विज्ञापन पर भी काफी शोरशराबा हुआ था. मिलिंद सोमन और मधु सप्रे पर नग्नावस्था में फिल्माया गया एक शू कंपनी का विज्ञापन तो बहुचर्चित ही है. इसी तर्ज पर अमरीका की एक बडी वस्त्र निर्माता कंपनी ने अपने प्रचार के लिए एक अमरीकी-बांग्लादेशी मॉडल को बहुत हद तक टॉपलेस दिखा कर उसके ब्रेस्ट पर मेड इन बांग्लादेश का ठप्पा लगा दिया. इस बेहद अश्लील और द्विअर्थी विज्ञापन को सरेआम होर्डिंग में लगाकर बड़े बच्चों सबकी नजरों से गुजारा गया और तो और ऐसा ही फूहड़ हरकत एक 62 साल की मॉडल के साथ भी दोहराई जा चुकी है. किसी सामान को बेचने के लिए सेक्स और अश्लीलता परोसने की मानसिकता समझ से परे हैं. सबको पता है कि दाढ़ी केवल मर्द बनाते हैं लेकिन इन सारी चीजों को बेचने के लिए जिलेट जैसी बड़ी कंपनियां चित्रांगदा और नेहा धूपिया जैसी सेक्सी और बोल्ड अभिनेत्रियों को साइन कर रही हैं. तो क्या इसके पीछे आप कामुकता को नहीं मानते हैं.
ब्रिटेन में तो एक मोबाइल फोन ऐप न्यूड स्कैनर का टीवी विज्ञापन एक प्रमुख टीवी शो के बीच में दिखाए जाने के बाद उस विज्ञापन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि इसमें न सिर्फ महिलाओं को नीचा दिखाया जा रहा था बल्कि टीवी पर उसे बच्चे भी देख रहे थे लेकिन  हमारे यहाँ ऐसे विज्ञापन प्राइम टाइम पर पूरे परिवार को बेधड़क दिखाए जाते हैं. सबसे बेतुकी बात तो हर विज्ञापन में महिला को ऑब्जेक्ट बनाकार परोसना है. भले ही औरत को सेक्सुअल रूप में पेश करने वाला दुनिया का पहला विज्ञापन अमेरिकी महिला ने ही बनाया हो लेकिन इस मामले में अब भारत सभी मुल्कों को पीछे छोड़ता नजर आ रहा है.


तू तू मैं मैं और मुनाफे की जंग 
ब्रांड वॉर और बढ़ता बाजार
एक अनुमान के अनुसार भारत में सिर्फ टेलीविज़न विज्ञापन का बाज़ार क़रीब 19 अरब डॉलर का है. एक्सपर्ट मानते हैं कि इस हिसाब से यह बाज़ार आने वाले एक दो सालों में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार बन जाएगा. बिजनेस अख़बार मिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016 तक ये आंकड़ा 54 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा. दिलचस्प बात है कि विज्ञापन बाजार में करीब 10,000 करोड़ रुपए की सबसे बड़ी हिस्सेदारी एफएमसीजी कंपनियों की ही है. जबकि दूसरा स्थान व्हाइट गुड्स (टीवी, फ्रिज, एसी आदि) कंपनियों की है, जो विज्ञापन पर सालाना 4,000-5,000 करोड़ रुपए खर्च करती हैं. इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि देश में विज्ञापन का बिजनेस कितना चरम पर है.
एड वर्ल्ड के बढ़ते बाजार में अब तक हम प्रिंट, टीवी की प्रमुख भूमिका मानते आयें है लेकिन बीते कुछ सालों इंटरनेट के जरिये विज्ञापन की अलग और बड़ी दुनिया बन चुकी है. कंडोम, सुई से लेकर घर पर पिज़्ज़ा भी आजकल ऑनलाइन माध्यमों के जरिये मंगवाने का चलन है. लिहाजा बाज़ार का विज्ञापन इस माध्यम पर भी करोड़ों लुटा रहा है. मसलन स्नैपडील, फ्लिपकार्ट और अमेजन डॉट कोम  आये दिन विज्ञापन पर करोड़ों खर्च करती हैं. ई कॉमर्स श्रेणी के इस नए बिजनेस के बदौलत बाजार में ब्रांड एस्टेब्लिशमेंट करने को लेकर प्रतिस्पर्धा और आक्रामक विज्ञापन का नया दौर सा शुरू हो गया है. हर ब्रांड प्रतिद्वंदी ब्रांड को सस्ता और हल्का बाते के लिए विज्ञापन के नए नए तरीके आजमा रहा है. कभी भारी से और डिस्काउंट की आड़ में तो कभी लकी विजेता स्कीम चलाकर.

हम को नहीं कुछ समझ, ज़रा समझाना..
यह विज्ञापन का बढ़ता प्रभाव नहीं तो और क्या है कि जो कई उद्योगपति खुद के टेलीविजन चैनल खोल रहे है. रिलायंस और विडियोकान द्वारा लाए जाने वाले समाचार चैनलों को भी इसी कवायद से जोड़ कर देखा जा रहा है. विज्ञापनों से होने वाली आय और नुकसान का अंदाजा इस घटना से भी लगाया जा सकता है कि टीवी चैनल एनडीटीवी ने टेलीविज़न ऑडियंस मेजरमेंट यानी टैम के ख़िलाफ़ ये कहते हुए मुक़दमा दायर किया था कि उसकी गलत औडियंस की गिनती के चलते चैनल को विज्ञापन से मिलने वाली आय का नुक़सान हो रहा है. 
हालांकि इससे उत्पाद कम्पनियों के बीच ब्रांड वार की स्थिति भी पैदा ही जाती जो अदालत तक पहुँच जाती है. जैसा कि महेंद्र सिंह धोनी और हरभजन सिंह के मामले में हुआ था जब एक शराब कंपनी के विज्ञापन में हरभजन के ही विज्ञापन का स्पूफ किया गया था. इस स्पूफ में मैक्डॉवेल के विज्ञापन में धोनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी परनॉड रिकॉर्ड के ब्रांड रॉयल स्टैग के विज्ञापन में हरभजन की भूमिका का मजाक उड़ाते दिख रहे थे. इसी नाराज होकर हरभजन और उनके परिवार ने विजय माल्या की यूबी स्पिरिट्स को मैक्डॉवेल नंबर वन प्लेटिनम व्हिस्की के उस विज्ञापन के लिए नोटिस भेज दिया था.    
इससे पहले भी कई एड वॉर के चक्कर में सेलिब्रिटी और खिलाड़ी आपस में उलझ चुके हैं. कुछ साल पहले आमिर की फिल्म डेल्ही बैली में एक कार का कथित रूप से मज़ाक उड़ाए जाने पर विवाद खड़ा हो गया था. आरोप था कि फिल्म में जानबूझ कर उस कार का इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि एक अन्य हीरो शाहरु़ख खान इस कंपनी की कार का प्रचार करते हैं. ऐसा ही वाकया डिटर्जेंट कंपनियों के मामले में दिखाई दिया. जब हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड (एचयूएल) के प्रोडक्ट रिन डिटर्जेंट और प्रॉक्टर एंड गैंबल (पी एंड जी) कंपनी के प्रोडक्ट टाइड डिटर्जेंट के विज्ञापन ने ब्रांड वॉर छेड़ दिया था. उस दौरान भी पी एंड जी ने एचयूएल के खिला़फ याचिका दायर कर दी थी. ऐसा ही विवाद कोलगेट और हिंदुस्तान लीवर्स, हॉर्लिक्स और कॉम्प्लान के बीच हो चुका है.


क्या बेचा जा रहा है, कुछ  खबर नहीं.
विज्ञापन और सेंसर
जो लोग सिनेमाहाल में फिल्में देखते हैं उन्हें पता है फिल्म से पहले दिखाए जाने वाली विज्ञापन बाकायद सेंसर सर्टिफिकेट के साथ प्रसारित होते हैं. यानी उन्हें भी सेंसर बोर्ड के पास कांटछांट के लिए भेजा जाता है. ताजुब की बात है कि सेंसर बोर्ड की कैंची फिल्मों को सामाजिक दुष्प्रभाव वाले कंटेंट के चलते क़तर देती है लेकिन विज्ञापनों को नहीं कतरती जो दिन में सैकड़ों बार हर आयु वर्ग के दर्शकों को दिखाए जाते हैं. केबल और डीटीएच के इस दौर में दिन-रात विज्ञापनों से ही टीवी चैनल्स की कमाई होती है. ऐसे में सभी तरह के अनसेंसर्ड कमर्शियल विज्ञापन, (ख़ास तौर पर निर्मल बाबा और लक्ष्मी यन्त्र जैसे अंधविश्वास फैलाने वाले) दिनरात प्रसारित होते रहते हैं. हालांकि कुछ वक्त पहले एक दर्शक की शिकायत पर बोर्ड ने अंडरवियर के दो विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया था. इन विज्ञापनों में एक मॉडल अंडरवियर को धोते हुए अश्लील एक्प्रेशन देती है. इसी तरह एक डियोड्रेंट का विज्ञापन भी उत्तेजकता की अति के चलते बैन किया गया. यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि उक्त सभी प्रतिबंध जनता की शिकायत के बाद लगाए गए. मतलब यह कि उससे पहले बोर्ड को कोई सुध ही नहीं थी.

ग़ौरतलब है कि इसे भी बैन किया गया था. लेकिन आज ऐसे सैकड़ों विज्ञापन हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे हैं और बोर्ड खामोश है. जब कोई जागरूक दर्शक अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी के नाते शिकायत दर्ज कराता है, तब जाकर बोर्ड की नींद टूटती है. छोटे निर्माताओं की फिल्मों एवं विज्ञापनों के लिए बोर्ड को सारे क़ानून और सांस्कृतिक मूल्य याद आ जाते हैं, जबकि बड़े निर्माताओं की फिल्मों में क्रिएटिविटी, कला की दृष्टि या कहानी की मांग का बहाना बनाकर कुछ भी दिखा दिया जाता है. यही वजह है कि आज लोग सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता पर सवाल उठाने लगे हैं.

विज्ञापन से जुडा रेसिज्म का मसला 
कहा जा सकता है कि विज्ञापन सूचना देने का जरिया होते हैं लेकिन यह अवधारणा अब पूरी तरह से खंडित हो चुकी है. आज तो विज्ञापन का बाजारू करोबार जो दिखता है वही बिकता है  के तर्ज पर चल रहा है. मांग और आपूर्ति की अवधारणा को तोड़ते हुए अब मांग पैदा करने पर जोर है. आज विज्ञापन का मूल उद्देश्य सूचना प्रदान करने की बजाए उत्पाद विशेष के लिए बाजार तैयार करना बन कर रह गया है.  काश उत्पादकों और विज्ञापन निर्माताओं को एहसास होता कि वे अपने लक्ष्यों को पाने की एवज में वह अपने नैतिक कर्तव्य को ना नकारें बल्कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी समझें.


                                                                                              ----   RAJESH S. KUMAR


                               

रंगमंच की बिसात के वैश्विक खिलाड़ी -- सईद जाफरी

भारतीय फिल्मों को मुख्य तौर पर दो धडों में बांटा जाता है. पहला व्यावसायिक सिनेमा जिसे चालू और मसाला  फिल्मों का सिनेमा भी कहते हैं और दूसरा समानांतर सिनेमा, जो ज्यादातर सामाजिक सरोकार और मुख्यधारा से उपेक्षित विषयों, मसलों और समाज की आवाज को परदे पर उतारता था. जाहिर है इन्हीं दो धाराओं में न सिर्फ सिनेमा बंटा था बल्कि बल्कि अभिनेता भी बंटे थी. सुपरस्टार और हीरो की छवि में कैद कलाकार व्यावसायिक सिनेमा के पैरोकार थे तो वहीँ गैर परम्परागत चेहरे मोहरे और थियेटर की पृष्ठभूमि से आये कलाकार पैरेलल यानी समानांतर सिनेमा के पैरोकार थी. एक तरफ मसाला सिनेमा जहाँ दिलीप कुमार, राज कपूर से लेकर खान, कपूर और कुमार सितारों तक सिमटा है तो वहीँ समानांतर सिनेमा में नसीरुद्दीन शाह, फारुख़ शेख़, अमोल पालेकर, ओम पुरी, कुलभूषण खरबंदा, नीना गुप्ता, सुरेखा सीकरी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी जैसे अनूठे अभिनेता थे. हालांकि यह विभाजन कई बार धुंधला भी होता है और एक दुसरे धड़े के कलाकार प्रयोगों से गुजरते हैं.

लेकिन सईद जाफरी जैसे कुछ कलाकार ऐसे भी होते हैं जो इन सीमाओं से परे वैश्विक रंगमंच में कलाकार की उस हैसियत को छू लेते हैं जो किसी ख़ास मुल्क या बिरादरी की मुहताज नहीं होती. सईद जाफरी को बतौर कलकार परिभाषित करना बेहद मुश्किल है. बौलीवुड के शौक़ीन उन्हें आमिर खान की दिल, और राज कपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैलीके मामा कुंजबिहारी की भूमिका के लिए,  हास्य रसिक उन्हें चश्मेबद्दूरके पानवाला लल्लन मियां के लिए याद करते हैं. लेकिन सईद जाफ़री होने का अर्थ सिर्फ हिंदी फिल्में ही नहीं है. अर्थपूर्ण फिल्मों के शौकीनों की नजर में वह महान फिल्मकार सत्यजीत रे के फिल्म शतरंज के खिलाड़ी के नवाब मिर्ज़ा है जो शतरंज की बाजिओं में इस कदर मशरूफ है की उसे लखनऊ के बदलते सियासी हालातों की फिक्र ही नहीं. और इंटरनेश्नल फिल्म बिरादरी में जो पहचान सईद जाफरी की है वो चंद भारतीय समझते हैं जो लन्दन थियेटर से वाकिफ और हॉलीवुड की चालू मसाला फिल्मों से इतर भी अंग्रेजी सिनेमा को कुछ समझते हैं. उन्हें वे ए पैसेज टू इंडिया, द फार पैविलियंस और माय ब्यूटीफुल लौन्ड्रेट सहित महान फिल्म गांधी के सरदार पटेल की भूमिका के लिए जानते हैं. एक ही दौर में अभिनय के इतने आयामों और अलग अलग देशों में सक्रिय रहे सईद ने 80 और 90  के दशक न जाने कितने यादगार काम किये हैं.  

सईद जाफरी की खासियत यही थी के वह वे कला फिल्मों में और बौलीवुड मसाला फिल्मों में उतनी ही शिद्दत से काम करते थे जितना अमेरिका के हॉलीवुड और और ब्रिटिश फिल्मों, बीबीसी की सीरीज और थियेटर में. चश्मे बद्दूर के शौक़ीन और दिलफेंक मिजाज पानवाला से लेकर ठसकदार नवाब की भूमिकाएं अदा करने वाले बहुमुखी अभिनेता सईद जाफ़री का पिछले दिनों 86 वर्ष की अवस्था में लंदन स्थित आवास पर ब्रेन हैमरेज से निधन हो गया. पंजाब के मालेरकोटा नामक गांव में 8 जनवरी
, 1929 को जन्में सईद जाफ़री के मातापिता उन्हें सिविल सर्विस में लाना चाहते थी लेकिन बचपन से ही खानाबदोश स्वभाव के रहे सईद को तो अभिनय के मैदान में उतरना था लिहाजा उन्होंने एक दिन पिता से दिल्ली घूमने की इजाजत मांगी और दिल्ली की उस रेलयात्रा में एक दिल्ली के दोस्त से हुई मुलाक़ात उन्हें ऑल इंडिया रेडियो तक ले आयी और फिर वहां उन्होंने पब्लिसिटी और एडवरटाइजिंग डायरेक्टर के तौर पर काम किया.
यहां से शुरू हुआ सफ़र कब जाकर नाटक की दहलीज पर पहुँच गया उन्हें खुद ही पता नहीं चला. बाद में जब उन्होंने 1951 में न्यू यूनिटी अमेच्योर थिएटर की स्थापना की तब वह पूरी तरह से रंगमंच के खिलाड़ी बन चुके थे. ज़मींदार खानदान के सईद में कला का गुण ननिहाल से आया. बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में सईद साहब ने स्वीकार किया था, बस, यूं ही शायरी पढ़तेपढ़ते और मामा के ख़तों का जवाब देते-देते मैं ख़ुद शायर बनने लगा.  शेर-ओ-शायरी का यही शौक उन्हें उर्दू, अंगेज़ी और हिंदी अदब तथा आगे चलकर अभिनय की दुनिया में खींच ले गया. उनके बारे में कहा जाता है की वह भारतीय होने के बावजूद विदेशों में अपनी परफेक्ट ऑक्सफ़ोर्ड स्टायल की अंगरेजी बोलने के लिये जाने जाते थे.


इसी रंगमंच की दुनिया में उनकी कला से प्रभावित होकर उन्हें लन्दन में नाटक करने का बुलावा आया. और इस इस तरह सईद जाफरी एक साथ हिंदी सिनेमा, रंगमंच और लन्दन थिएटर में एक साथ काम करने वाले शायद पहले भारतीय बन चुके थे. जाफ़री ने द एक्टर्स स्टूडियो  में थोड़े समय के लिए जगतप्रसिद्ध अभिनेत्री मर्लिन मुनरो के साथ काम किया था. लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा मिली उन्हें 1962 में ब्रॉडवे के प्रोडक्शन अ पैसेज टू इंडिया में प्रोफेसर गोडबोले के किरदार से. इस प्रकार ब्रॉडवे के साथ काम करने वाले वह पहले भारतीय बने. अपने करियर के दौरान उन्होंने हॉलीवुड के कई दिग्गजों के साथ काम किया. वह ऐसे पहले भारतीय अभिनेता थे जो शेक्सपियर के नाटकों को लेकर पूरे अमेरिका में घूमे. इस बीच एक नाटक के दौरान उनकी मुलाकात अभिनेत्री और ट्रेवलर मधुर बहादुर से हुई. कला की उर्वरक ज़मीन पर दो कलाकार के बीच रोमांस का रसायन कुछ यों बना कि दोनों ने एक ज़िंदगी गुजारने की ठान ली. लेकिन पता नहीं क्यों दुनियाभर के संजीदा कलाकार, शायर और वैज्ञानिक, लेखक, दुनियादारी के तमाम किरदारों को सम्पूर्णता से निभाते हुए घर में पति के किरदार में असफल हो जाते हैं. सईद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ और दोनों अलग हो गए. शायद एक आदर्श विवाह की राह में आज़ाद ख्याली ही सबसे बड़ा रोड़ा होती है जबकि उम्दा कलाकार होने के लिए सबसे जरूरी भी यही आज़ाद ख्याली ही है
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बहरहाल, जाफ़री की मधुर के साथ यूएसए में ज्यादा दिन निभ नहीं सकी. सन 1965 में दोनों का तलाक हो गया. उनकी तीनों बेटियां ज़िया, मीरा और सकीना मां के साथ रह गईं और सईद फिर से ब्रिटेन आ गए. कहते हैं कि ब्रिटेन में सईद को नए सिरे से संघर्ष करना पड़ा. छोटीमोटी भूमिकाओं के आलावा कई नौकरियां भी की ताकि रोजी रोटी का जुगाड़ हो सके. 1980 में उन्होंने जेनिफर जाफरी से शादी की. लेकिन सईद साहब का आखिरी वक़्त शराब की आगोश में ही गुजरा. यह भी एक अजीबोगरीब इत्तेफाक है कि ज्यादातर गंभीर कलाकार परिवार में अकेले रह जाते हैं और आखिरी वक़्त में उनका साथ शराब ही निभाती है. महान फ़िल्मकार गुरुदत्त से लेकर मीना कुमारी, सुपरस्टार राजेश खन्ना इसी शराबनोशी में दुनिया को अलविदा कह गए. सईद भी शराब को गले लगा चुके थी.
शराब को लेकर बेहद दिलचस्प किस्सा बयान करते हुए फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे कहते हैं कि सईद जब दावतों में शरीक होते तो हमेशा उनकी कोट में चांदी का गिलास होता. और शराब केवल उसी गिलास में पीते और पीते पीते मजेदार किस्से सुनाते हर दावत के आरम्भ में मेजबान से कहते कि अगर वे पीतेपीते होश खो दें तो बराय मेहरबानी उनका चांदी का गिलास उनकी जेब में रखकर ही उन्हें अपने कमरे में भिजवा दें. हालांकि वे चाहते तो और भी चांदी के गिलास ले सकते थे. लेकिन कुछ बात थी, जिसे सिर्फ वे ही जानते थे. 


कई कलाकार ऐसे होते हैं जिनके योगदान का मूल्यांकन आने आली पीढी नहीं कर पाती.सईद जाफरी के जीवन के कई ऐसे पहलू आज भी हम नहीं जानते. कारण, उन्होंने होने भारत से ज्यादा काम विदेशों में किया और विदेशी काम को 80-90 के दशक में भारतीय मीडिया न तो हम तक सही से पंहुचा पाइ और न ही सईद ने कभी अपनी काम को लेकर अंतरराष्ट्र्रीय मंच पर कोई ढिंढोरा पीटा. सिर्फ अपने काम में डूबे रहे सईद जाफरी ने जब आखिरी सांस लन्दन में ली तो उनके चाहने वाली लोगों की यहाँ आँखें नम जरूर हुई होंगी. सईद जैसी कलाकार शतरंज की हर बिसात और रंगमंच की हर विधा में माहिर खिलाड़ी होते हैं.     

सईद का फिल्मनामा 
उन्होंने द मैन हू वूड बी किंग 1975, शतरंज के खिलाड़ी 1977,, गाँधी 1982,  ए पैसेज टू इंडिया 1964, बीबीसी संस्करण एवं 1984 फ़िल्म, द फार पैविलियंस (1984) और माय ब्यूटीफुल लौन्ड्रेट 1985 सहित विभिन्न फ़िल्मों में अभिनय किया. उन्होंने 80 और 90  के दशक में विभिन्न बॉलीवुड फ़िल्मों में भी काम किया. उनकी अहम फिल्में रही हैं, गांधी, मासूम, शतरंज के खिलाड़ी, हिना, राम तेरी गंगा मैली, चश्मे बद्दूर, जुदाई अजूबा, दिल, किशन कन्हैया, घर हो तो ऐसा, राजा की आएगी बारात, मोहब्बत और आंटी नंबर वन. वहीं तंदुरी नाइट्स और ज्वेल इन द क्राउन जैसे टीवी शो के लिए भी सईद जाने जाते रहे हैं.


·         जाफरी ने करियर की शुरुआत दिल्ली में थिएटर से की थी.
·         1951-1956 तक ऑल इंडिया रेडियो में पब्लिसिटी, एडवरटाइजिंग डायरेक्टर के तौर पर रहे.
·         जाफ़री ने द एक्टर्स स्टूडियोमें अभिनेत्री मर्लिन मुनरो के साथ काम किया था.
·         सईद पहले भारतीय थे जिन्हें 'आर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर' अवॉर्ड मिला था.
·         सईद जाफरी साहब ने 100 से ज्यादा फिल्मों में काम किया.
·         फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा गया.
·         1988-89 से बीच प्रसारित हिट सीरीज 'तंदूरी नाइट्स' में भी उन्होंने काम किया है.
·         ऑस्कर विजेता फ़िल्म 'गांधी' में सरदार वल्लभ भाई पटेल की भूमिका निभाई थी।

·         पियर्स ब्रोसनन, शॉन कोनरी और माइकल केन जैसे बड़े नाम उनके सह कलाकार रह चुके हैं.                                                                                                                                       
                                                  -----RAJESH S. KUMAR

लंगोट, दंगल और भेड़चाल



सलमान खान की फिल्म सुलतान का ट्रेलर रिलीज होते ही सोशल मीडिया में लंगोट और दंगल जैसे कीवर्ड ट्रेंड कर रहे हैं. ये कीवर्ड पहले फिल्म और वर्चुअल दुनिया में इतने जोर से कभी नहीं सुने और देखे गए. बड़ी फिल्में आते ही और लगभग प्रचलन से बाहर हो चुके कीवर्ड और किरदारों को ट्रेंडिंग टोपिक बना देती हैं.
सुलतान का जबसे ट्रेलर रिलीज हुआ है डिजिटल मीडिया में इसे लाइक करने वालों की बाढ़ सी आ गयी है. यह फिल्म हरियाणा के मशहूर पहलवान सुल्तान अली खान के जीवन पर आधारित है. फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा है और इसके पटकथा लेखक और निर्देशक अली अब्बास जफर हैं. यह फिल्म इस साल ईद पर रिलीज होगी. जाहिर है आमिर की दंगल के साथ भी ऐसा होगा. यह भी इसी विषय पर केन्द्रित है.
जिस तरह देश के ज्यादातर स्पोर्ट्स चलन से बाहर हो गए हैं वैसी ही दंगल भी हरियाणा जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर और कहीं कम ही होता है. पहले गाँवोंकस्बों का हर मेला और जलसा बिना दंगल के पूरा नहीं होता. अलल अलग इलाकों से पहलवान बुलाये जाते थे और बड़ी इनामी राशि रखकर दंगल का आयोजन कई दिनों तक चलता था. यह तब की बात है जब टीवी का रोग और इंटरनेट की लत नहीं थी. अब तो दंगल का मतलब डबल्यू डबल्यू फाईट से निकाला जाता है.
बहरहाल हिंदी फिल्मों में यों तो सामाजिक सरोकार की कहानियों से जुड़े विषयों का टोटा रहता है. और दलित व पिछड़े समाज से जुडी किरदारों को तो हमेशा से ही हाशिये पर रखा गया है. दंगल और सुलतान के पहलावान या तो पिछड़े समाज से आये है या फिर दलित से, लेकिन हर साल हजारों फिल्में बौलीवुड में बनती हैं, पर इन्हें नायक की तरह कम ही पेश किया जाता है.


सामाजिक सरोकार, दलित सिनेमा 
भारत में ढेरों फिल्में बनीं पर इनमें सदियों से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था का चित्रण नहीं के बराबर हुआ है. एक अखबार में प्रकशित रिपोर्ट के मुताबिक बीते दो वर्षों में रिलीज 400 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में मात्र 6 फिल्में थी जिसमें शीर्ष भूमिका में पिछड़े वर्ग की जाति के नायक को दखाया गया. याद करें तो फिल्म लगान का कचरा याद आता है या फिर दशरथ मांझी. वर्ना ज्यादातर हिंदी फिल्मों में दलित व पिछड़ों को या तो रामू काका के घिसेपिटे किरदार में पेश किया जाता है या फिर ड्राइवर या दुकानदार. जबकि नायक कोपी सिंघानिया, मल्होत्रा या कपूर होता है. फिल्म गंगाजल में भी एक दलित को अहम् किरदार दिया गया था लेकिन फिर भी मुख्य नायक सवर्ण ही था.आज का सिनेमा समाज के उस धड़े को भूल गया है जो आज भी अमोने मेहनत और लगन से देश के आर्थिक हालातों को मजबूत का रहा है और अपनी सामाजिक जगह भी मजबूत कर रहा है.
अगर फिल्म बिरादरी इनके साथ जातिगत भेदभाव न करती तो आज दंगल औएर सुलतान के अलावा पार, अंकुश, अंकुर, निशांत और मांझी जैसा सिनेमा अधिक संख्या में बनता और इस दबेकुचले वर्ग की पीड़ा को उठाता. हालांकि इसमें भी कोई सहक नहीं है की सुलतान या दंगल इस वर्ग के हित की कोई बात करेंगे. होगा यही कि मसाला फिल्मों की तरह इस कथानाक को पेश किया जायेगा.


एक कहानी, एक फ़ॉर्मूला 
बौलीवुड में अक्सर देखा गया है कि प्रयोगधर्मी सिनेमा को कभी तरजीह नहीं दे गयी, इसकी जिम्मेदारी गिनेचुने ऑफबीट फिल्म बनाने वाले निर्देशकों पर डाल दी जाती है. और जिनके पास करोड़ों का बजट और वितरण की बड़ी मार्केट्स हैं वे भेडचाल में चलते भुए उसी फ़ॉर्मूले क दोहरा रहे हैं जो एक बार हिट हो जाता है. गार कॉमेडी फिल्म हिट हो गयी तो एक साथ ऐसी फिल्मों की लाइन लग जाएगी और अगर हॉरर चल निकली तो फिर इसी विषय पर फिल्म बनाई जायेगी. कभी कभी ऐसा भी दौर आता है जब अचानक से एक ही कहानी पर कई सारे फिल्ममेकर न सिर्फ एक साथ फिल्म बनाए लगते हैं बल्कि एक ही सप्ताह या दिन रिलीज करने पर भी अड़ जाते हैं. कहानी और विषयों को लेकर भेडचाल का चलन कुछ यों है जो विषय सालों से अनछुए रहते हैं अचानक एक ही वक़्त टपक जाते हैं. जैसा कि भगत सिंह के जीवन पर आधारित फिल्में के मामले में हुआ था. साल 2002 में इस विषय पर बौबी देओल, अजय देवगन और सोनू सूद को लेकर 3 फ़िल्में बनी और मजे की बात तो यह है की तीनों अपनी फिल्म को एक ही तारीख पर रिलीज करने के लिए अड़ गए थे. ऐसा हुआ भी. नतीजतन सारी फिल्मों पिट गईं  क्योंकि दर्शक एक ही विषय को लेकर बंट गए थे.
इस साल भी सलमान खान जहाँ अली अब्‍बास जफर निर्देशित सुल्‍तान में लंगोट बांध कर दंगल करते नजर आयेंगे तो वहीँ मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान भी फिल्म दंगल में पहलवान के किरदार में धरती पकड़ पहलवान के किरदार में नजर आएंगे. आखिरी बार किस अभिनेता ने पहलवान का किरदार किया था. आप को याद नहीं आयेगा. क्योंकि यह विषय कभी भेड़चाल का हिसा नहीं बना पर अब लगता है बन जायेगा.


चोरी वाली भेड़चाल 

सेम कहानियों की भेडचाल से इतर हैं चोरी वाली भेडचाल. इसमें निर्माता निर्देशक थोक के भाव विदेशी फिल्मों की डीवीडी खरीदत है और अपने लेखक से उसका हूबहू भारतीय संस्करण बनवा लेते हैं. इस कला में ससे ज्यादा माहिर भट्ट ब्रदर्स (महेश और मुकेश भट्ट) रहे हैं. उनके बैनर की 90 प्रतिशत फिल्में हॉलीवुड फिल्मों से उड़ाई गयी है. भट्ट कैम्प की कामयाबी की देखादेख 90 के दशक इस भेडचाल में सब निर्माता निर्देशकों ने हाथ आजमाए. हालांकि अब परिदृश्य बदल चुका है. अब अंग्रेजी फिल्मों की स्टोरी चुराना कम और जोखिम बहार काम है. हालीवुड की फिल्मों के रीमेक के अधिकार खरीदने के लिए बडी राशि चुकानी पड़ती है. इसके आलावा हॉलीवुड के ज्यादातर प्रोडक्शन हॉउस जैसे फॉक्स फिल्म्स, सोनी पिक्चर, लाइंस गेट और वायकोम 18 के दफ्तर मुंबई में खुल चुके हैं. जाहिर है इनके नाक के नीचे से इनकी फिल्में चुराना आसान नहीं है. सोहेल खान ने अंग्रेज़ी फिल्म हिच की कॉपी कर डेविड धवन से जब पार्टनर बनवाई थी तो मूल फिल्म के निर्माता सोनी पिक्चर ने सोहेल पर धावा बोल दिया था. मामला किसी तरह कोर्ट के बाहर मोटी रकम देकर सुलझाया गया.


साउथ का मसाला डोसा 
हॉलीवुड फिल्मों की चोरी जब पकड़ने लगी तो भेडचाल का रुख दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरफ मुड़ गया. यहाँ जो फिल्में क्षेत्रीय स्टार पर ज्यादा कामयाब होने लगी उनके राइट्स सस्ते में खरीद कर मुंबई के निर्माताओं ने खूब कमाया. यह भेडचाल आज भी जारी है. साल भर में रिलीज हिट चंद अच्छी हिन्दी फिल्में ज्यादातर साऊथ इंडियन फिल्मों की रीमेक थीं. किसी साउथ की फिल्म के डायरेक्टर को हिन्दी रीमेक के लिए लाकर ये काम आसान बना लेते हैं. दरअसल एक सफल फिल्म के रीमेक करना बिजनेस के हिसाब से आसान और सफल प्रयोग होता है. सलमान. अक्षय कुमार से लेकर आमिर खान तक रीमेक फिल्मों से 100 करोड़ क्लब में शामिल हुए हैं. दृश्यम, ट्रैफिक, गजनी, गोलमाल, बॉडीगार्ड,  रेडी,  सिंघम, हाऊसफुल 2, राऊडी राठौर, मैं तेरा हीरो, बागी  और सन ऑफ सरदार  जैसी सफलतम फिल्में दक्षिण भारतीय फिल्मों की रीमेक हैं. इनकी जगह अगर समाज के उस धड़े और तबके के विषयों पर ज्यादा फिल्में बनें तो मनोरंजन जगत की सार्थकता समझ आये,  



पुलिस पब्लिक और अंडरवरवर्ल्ड 
एक और भेडचाल ऐसी है जो किसी ख़ास किरदार या थीम के हिट होते ही निर्माता निर्देशक उसी फ़ॉर्मूले को इतना घिसते हैं कि पब्लिक उकता ही जाये. बीते 4-5 सालों में पुलिस सिस्टम और दबंग किरदारों पर फिल्में बनाने का चलन कुछ यों शुरू हुआ की सिंगम, दबंग से लेकर राऊडी राठोर और पुलिसगिरी तक न जाने कितनी फिल्में बनीं, इनके सीक्वल भी बने. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक तक यह सब्जेक्ट पब्लिक ने नकार नहीं दिया. पुलिस का अपराध से चोली दामन का साथ है लिहाजा राम गोपाल वर्मा सरीखे निर्देशकों ने सत्य, कम्पनी, डी जैसी सफल फिल्मों के केंद्र में उन कुख्यात अपराधियों को रखा जो एक समय अंडरवरवर्ल्ड के सरगना थे. ऐसी फिल्में पसंद भी की गई बाद में जब यह विषय भी भेडचाल का सहकार हुआ तो इसी विषय पर बनी डिपार्टमेंट और सत्या 2 जैसी कई फिल्में औंधी मुंह गिरी.


अकर्मण्यता और अंधविश्वास का महिमामंडन 
इसी तरह एतिहासिक फिल्मों का दौर चला था, तब जोधा कबर से लेकर बाजीराव तक चला और हास्य और मसाला फिल्मों की घिसाई तो सालों से हो रही है और जिस तरह आज दंगल और लंगोट के चर्चे है. आगे चलकर कोई और नया विषय ट्रेंड में आयेगा और उस पर भी भेड़चाल होने लगेगी. लेकिन जिस तरह फिल्मों के हर दुसरे सीन में देवी देवताओं की पूजा, घन्टी बजाते ही आँखे आ जाने जैसी चमत्कार और तमाम अंधविश्वासी दृश्य रचकर आमजन को गुमराह किया जाता है. इसी तरह रागिनी एमएमएस और तमाम भूटिया फाइलों में हनुमान चालीसा का पाठ हो या क्राइस्ट सिम्बल का प्रयोग, समाज को अंधविश्वास की गहरे गर्त में ले जाता है. 
इसके अलावा अपराधियों, चोर और गैंगबाजी वाली फिल्मों में जाहिर किया जाता है कि बड़ा आदमी बनने के लिए मेहनत की नयी शोर्कत की जरूरत है. बैंक लूट लो, हफ्ता वसूलो, गुंडी बन जाओ या फिर लौटरी लगेगी या फिर भगवान चमत्कार कर देगा, काम को प्रधान नहीं दिखाया जाता. इस से समाज में अकर्मण्यता को बढ़ावा मिलता है. फिल्मों के दृश्यों से इंस्पायर होकर रोबरी की असल वारदाते या फिर मर्डर के अपराध अंजाम दिए जाते हैं.
समय आ गया कि फिल्मकार और कलाकार अपने सामाजिक सरोकार समझें और सिर्फ नाचगाने की फूहड़ सिनेमा से परे कुछ समाज के बाहर और कुछ परदे के अन्दर करने की जहमत करें. 

                                           --RAJESH S. KUMAR

Friday, September 2, 2016

मैन इज अ लाफिंग एनीमल फिर हास्य से परहेज क्यों


पिहले माह हास्य कलाकार कपिल शर्मा के कॉमेडी शो 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' की शटर बंद होने से चंद एपिसोड पहले शो में पलक का किरदार निभाने वाले कीकू शारदा को शो के दौरान डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम का मजाक उड़ाने के सिलसिले में मुंबई पुलिस ने गिरफ्तार किया. एक ही दिन उनकी दो बार गिरफ्तारी हुई. कीकू का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने एक गैग एक्ट के दौरान राम रहीम की फिल्म 'एमएसजी-टू'  के एक सीन को हसोड़ अंदाज में पेश किया था. हालांकि इसमें अपराध वाली कोई बात नहीं थी क्योंकि भारत में हास्य परम्परा कोई आज की नहीं है और इस तरह के शो में पहले भी बड़े फिल्म कलाकारों के आलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर राहुल गाँधी, अरविन्द केजरीवाल और मौजूदा पीएम नरेन्द्र मोदी तक पर हास्य कसा जाता है. ऐसे में 'एमएसजी-टू' जैसी फिल्म पर जो खुद राम रहीम की इमेज को रजनीकांत... फिल्म में राम रहीम एक मुक्के से हाथी को हवा में उड़ा देते हैं और एक हाथ से सैकड़ों तीरों को हवा में रोकने जैसे चमत्कारी स्टंट्स को अंजाम देते हैं.... सरीखी पेश करती है,  हास्य करना बड़ी बात नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन हमारे यहाँ तो धर्म का नशा अफीम से भी ज्यादा तेज है, लिहाजा राम रहीम जी के बुरा लगने से पहले ही उनके अंधभक्तों, समर्थकों की धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं. उस पर तुर्रा यह की आमतौर पर भ्रष्ट और सुस्त गति सी काम करने के लिए बदनाम पुलिस सिर्फ एक शिकायत पर हरियाणा से मुम्बई जाकर कीकू को अरेस्ट कर लाई. गोया कीकू कोई हास्य कलाकार न होकर कोई आतंकी गिरोह का सरगना हो. इस मामले कीकू को न सिर्फ माफी मंगनी पड़ी बल्कि मोटी रकम के मुचलके पर जमानत भी लेनी पड़ी.

हास्य और आहत भावनाएं 
इसी तरह हास्य पर एक तरह से लगाम कसने के लिए कुछ अरसा पहले संताबंता के जोक्स के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में इन्हें बंद करने के लिए सिख वकील हरविंदर चौधरी ने एक याचिका दायर की और हाल में सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने अदालत का दरवाजा खटखटाया,  इनकी भी भावनाएं आहत हो रहीं थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने किसी समुदाय का मजाक उड़ाने वाले चुटकुलों को लेकर गाइडलाइन बनाने की संभावना पर विचार करने को कहा है. अगर सिख समुदाय पर संता बंता जोक्स सिर्फ इस आधार पर बैन कर दिए जाते हैं तो फिर हर तरह के जोक्स बंद होने चाहिए. क्योंकि कई तरह के जोक्स यूपी बिहार और उत्तर पूर्व के लोगों पर केन्द्रित होते हैं. न सिर्फ संता बंता बल्कि, पति-पत्नी, टीचर-स्टूडेंट, पड़ोसी, जीजा साली, और इस तरह से किसी भी जाति या वर्ग विशेष को निशाना बनाने वाले जोक्स पर गौर कीजिए कहीं न कहीं किसी न किसी की भावना आहत हो ही रही होगी. हम अंग्रेजों, विदेशियों को लेकर मजाक बनाते हैं क्या अदालतों में इन्ही भी याचिका डाल देनी चाहिए. दरअसल हास्य किसी ख़ास धर्म समुदाय के अपमान के लिए, बल्कि मनोरंजन के लिए मजाकिया तौर पर प्रयोग किया जाता है.


हास्य बोध और आत्मविश्वास 
उदाहरण के तौर पर इस चुटकले को ही लीजिये,
संतों और बंतों अपने पतियों के बारे में बात कर रही थी.
संतों ने कहा विधवाएं हमसे बेहतर हैं.
बंतों वह कैसे.
संतों कम से कम उन्हें यह तो पता होता है उनके पति कहां हैं.
अब इसे हास्य बोध से सुनें और हँसे तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी लेकिन अगर विरोध ही करना है तो इस पर संतो बंतो समेत तमाम विधवा समाज भी आहत होने की बात कर सकता है. यहाँ तो हमें खुद फैसला करना है कि हास्य को स्वस्थ मनोरंजन के की तरह लें या फिर.. इस मसले पर वरिष्ठ लेखक खुशवंत सिंह बड़े दिलचस्प अंदाज में कहते थे, सिखों के बारे में सरदार जी के चुटकुले सबसे ज्यादा हैं. हालांकि यह हमेशा दूसरों से आगे रहते हैं फिर भी उन्हें बिना दिमाग वाला कहा जाता है. मजे की बात यह है कि ऐसे ज्यादातर चुटकुले उनकी ही कौम के लोग बनाते हैं. जात बिरादरी को लेकर गढे़ गए चुटकुले भले ही आमतौर से अच्छे नहीं समझे जाते. लेकिन दुनियाभर में इन चुटकुलों की भरमार है. इनका लक्ष्य हमेशा वह समुदाय होता है जो देश में दूसरों से बेहतर होता है. या कहें तरक्की कर चुके तबके से ईर्ष्या के प्रतिरूप इस तरह के चुटकुले बनते है. जैसे मारवाड़ी बनियों के बारे में चुटकुले कहे जाते हैं. केवल वही अपने आप पर हंस सकता है जिसमें आत्मविश्वास होता है.
दुःख की बात है कि यह आत्मविश्वास अब न सिर्फ सिख समाज बल्कि समाज का हर तबका खो चुका है शायद इसलिए हास्य से इतना परहेज किया जा रहा है. इस मामले में तो आलिया भट्ट से सबक लेने की दरकार है. आलिया को खुद का मजाक उड़ाने से कोई परहेज नहीं है. गौरतलब है कि  आलिया ने करन जौहर के शो में भारत के राष्ट्रपति का नाम पृथ्वीराज च्वहाण बताया था. इसी के बाद आलिया भट्ट के नाम से जोक्स भी चलने लगे. उनकी आईक्यू, सामान्य ज्ञान और और मूर्खता को लेकर सोशल मीडिया में जमकर चुटकुलेबाजी हुई और आज भी यदा कदा उनकी कम दिमागी को लेकर व्यंग्य का दिया जाता है. लेकिन ने बजाये इस बात पर चिढने या किसी पर मानहानि का दावा ठोकने के आलिया ने एक वीडियो के जरिए खुद का मजाक बनाया और अपने आत्मविश्वास का परिचय दिया.

इंसान हँसते हैं पशु नहीं
एक अंग्रेजी में मशहूर कहावत है, मैन इज ए लाफिंग एनीमल यानी मनुष्य एक हँसने वाला प्राणी है. गौर करें कि दुनिया में करोड़ों प्रकार के जीव हैं लेकिन प्रकृति ने हास्य बोध या कहें हंसने की कला सिर्फ हम इंसानों को दी है और जब जब हंसने के मौके आते हैं हम छोटी बातों पर मुंह लटका लेते हैं. पशुओं को कभी हँसते नहीं देखा गया है. मनुष्य को पशुओं से इतर बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि के साथ हास्य का जो तोहफा मिला है उसे यों ही जाया जाने देना मूर्खता होगी. दुनिया में हर इंसान का रहनसहन, आचारविचार, परम्परा,  भाषा व व्यवहार में लाख अंतर हो लेकिन जो चीज सबको सामने तौर पर जोडती हैं वो है हँसी की वृत्ति सब में समभाव से विद्यमान है.


मजाक उड़ाना बनाम बनाना
मिमिक्री आर्टिस्ट और टीवी कलाकार सुगंधा मिश्र को लता मंगेशकर की बेहतरीन मिमक्री के लिए जाना जाता है. लेकिन जब हाल में के कार्यक्रम के दौरान उन्होंने यही एक्ट दोहराया तो कुछ लोगों तीखी आलोचना की. हालांकि लता जी का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर ज्यादा बेहतर निकला. इसलिए उन्होंने मामले को हंसी में लेते हुए कहा, यह आजाद देश है और हर कोई अपना व दूसरों का मनोरंजन करने के लिए स्वतंत्र है. इस बाबत मशहूर स्टैंड अप आर्टिस्ट राजू श्रीवास्तव कहते हैं, जरा सोचिये भारत में सैकड़ों मिमिक्री आर्टिस्ट हैं, जिनको देखते ही दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाते हैं. उनके द्वारा की गयी सितारों की नक़ल के जरिये ही हम कई पुराने कलाकारों के अंदाज से वाकिफ होते हैं. वर्ना नयी पीढी को आज भी पुराणी पीढ़ी के कई बड़े कलाकारों के नाम और शक्ल तक याद नहीं है. दरअसल मजाक उड़ाने से कहीं ज्यादा बुरा मजाक बनाना होता है. अगर मिमिक्री कलाकार सितारों की नक़ल के नाम पर उनकी छवि से खिलवाड़ करें या फिर उनकी व्यक्तिगत जिन्दगी पर हस्तक्षेप करें तो फिर यह बात गंभीर हो जाती है. जैसा कि शाहरुख़ खान की एक फिल्म में मनोज कुमार अपना मजाक बनाये जाने से आहत हुए थे. हालांकि बाद में उन्होंने शाहरुख़ और फरहा खान को भी माफ़ कर दिया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक कार्यक्रम में विरोधियों पर व्यंग्य कसते हुए कह रहे थे कि आप हार्वर्ड से आये होंगे, मैं यहां हार्ड वर्क से पहुंचा हूं. हालांकि वह भी जानते हैं कि सोशल मीडिया में विदेशी यात्राओं को लेकर उनकी भी कम खिंचाई नहीं होती, शायद इसलिए वह व्यंग्य कसने के बाद यह कहना नहीं भूले कि मुझे मालूम है कि मेरी इन बातों का मजाक उड़ाया जायेगा. वह भी समझते हैं कि उनकी बातों का मजाक भी  उड़ाया जाता है,  भले ही सामने न होकर पीठ पीछे हो. अब सबके खिलाफ एक्शन लेने के बजाए इन चुटकियों पर मुस्काकर आगे बढ़ना ही समझदारी है. ऑफिस में चाहे बॉस को लेकर गढ़े गए चुटकुले हों या फिर राजनीति की हस्तियों के नामों पर मौनी बाबा, पप्पू, फेंकू, जैसे जुमलों का इस्तेमाल, इन पर चिढने के बाजे हँसना ही लाजिमी है. हाँ जब मजाक की सीमा लांघी जाये तब विरोध दर्ज करना जरूरी है क्योंकि मजाक उड़ाना कई बार मजाक बनाना बन जाता है. फोटोशोप के जरिये सोशल मीडिया में तस्वीरों को अभद्र तरीके से जोड़कर बेहूदा हास्य पैदा करना भी हास्य की शीलता भंग करता है. इसका विरोध होना जरूरी है. इसी तरह चुनाओं के दौरान व्यंग्य शैली की आड़ लेकर व्यक्तिगत बयानबाजी भी कहीं से हास्य के दायरे में नहीं आती.


गोल्डन केला, रैस्बेरी और सेन्स ऑफ़ ह्यूमर
अमेरिका के फिल्म उद्योग में सेन्स ऑफ़ ह्यूमर को खासी तरजीह मिलती है. इसीलिए वहां बाफ्टा, एकेडमी अवार्ड्स को लेकर जितनी उत्सुकता देखने को मिलती है, उतनी उत्सुकता गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स को भी मिलती है. बता दें कि हॉलीवुड के मनोरंजन जगत में गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स के जरिये साल के सबसे खराब सिनेमा, अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक आदि को ट्रोफी दी जाती है. इसी की नक़ल पर भारत में कई सालों से गोल्डन केला अवार्ड्स साल की सबसे खराब और हंसी का पात्र बनी फिल्मों को पुरस्कृत किया जाता है. यह मनोरंजन का एक जरिया माना जाता है ताकि असफल फिल्मों से जुड़े लोगों के गम को हास्य के माध्यम से कम किया जा सके. जैसे कि  हमारे यहाँ आज भी कई इलाकों में महामूर्ख सम्मेलन में चुने हुए लोगों को सम्मानित किया जाता है. इसके लिए बाकायदा ऑनलाइन वोटिंग के जरिये होता है. दिलचस्प बात यह है की अमेरिका में इस अवार्ड को लेने सम्बंधित कलाकार कई बार मौजूद भी होते हैं. हालांकि भारत में अभी कलाकार हास्यबोध के मामले में उतने परिपक्व नहीं लिहाजा मजाक का पात्र बनने से बचते हैं.
कई बार स्टैंडअप कलकार अपने स्टेज शो के दौरान कुछ गैग्स करते हैं और सामने बैठी जनता हूट करने लगती है. गीतकार और स्टैंड अप आर्टिस्ट वरुण ग्रोवर एक ऐसी ही अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं, एक दफा उन्होंने भारतीयों के ड्राइविंग और ट्रैफिक के दौरान हौंक्स करने की आदत पर कटाक्ष किया तो दर्शक दीर्घा में बैठे एक सज्जन ने उन्हें यहाँ तक कह डाला की भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए शर्म नहीं आती. तुम जैसों को तो गोली मार देनी चाहिए. वरुण कहते हैं अच्छा हुआ वह कोई राजनीतिक या कोर्पोरेट हस्ती का बेटा नहीं था, जिसके हाथ में वाकई की गन होती है, वरना... वरुण के मुताबिक़ हम भारतीय कभीकभी मजाक की बात को भी गंभीरता से लेकर उग्र हो जाते हैं जबकि डार्क ह्यूमर और ब्लैक कॉमेडी में इतना तो चलता है. कमी है तो सिर्फ कोमन सेन्स और सेन्स ऑफ़ ह्यूमर की.

AIB GANG

मोरल पोलिसिंग क्यों
सेंसर बोर्ड की तो आये दिन फजीहत होती रहती है. कभी बीप शब्दों की नयी लिस्ट निकालने के चलते तो कभी धर्म संस्कार के ठेकेदारी के चलते. लेकिन फिलहाल इंटरनेट इस सेंसरशिप की वजह से बचा है. लेकिन कुछ वक़्त पहले जब मुंबई में एआईबी नॉकआउट कार्यक्रम के दौरान अश्लीलता की बात उठी और करण जौहर, रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर और सोनाक्षी सिन्हा जैसी फ़िल्मी शख़्सियतों की मौजूदगी वाले इस शो की तीखी आलोचना करते हुए इसे बेहद भद्दा और अश्लील बताया है. तब अचानक से धर्म और संस्कृति का झंडा उठाये कई लोग विरोध में आ गए. जबकि इस शो को देखने वही लोग गए थे जिन्होंने शो के मंहगे टिकट खरीदे थी. वीडियो पर अश्लीलता का आरोप लगाकर ब्राह्मण एकता मंच नामक संगठन ने मुंबई के साकीनाका पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई थी. अच्छी बात यह थी कि राज्य के संस्कृति मंत्री विनोद तावड़े ने एआईबी ने ज़रूरी अनुमति ली थी या नहीं, की जांच की बात कही और मॉरल पोलिसिंग करने से साफ़ इनकार कर दिया. अब घर के अन्दर कौन किस तरह का मजाक किस भाषा में कर रहा है या फिर कौन किस तरह का शो, फिल्म या गाना सुने इस पर सेंसर लगाना तो मोरल पोलोसिंग हुई.  आज के युवा को मोरल पोलोसिंग की जरूरत नहीं है. हास्य को अगर दायरे में बाँधा जाएगा तो वह फिर हंसी नहीं गंभीरता का एहसास देगा. अमेरिका में सालों से दिखाये जा रहे लाइव हास्य कार्यक्रम सैटरडे नाइट लाइव के तो लगभग हर एपिसोड में ओबामा से लेकर कई नामचीन हस्तियों की नक़ल कर मजाक उड़ाया जाता है और किसी भी तरह की विरोधबाजी नहीं होती.


मर्ज, मजाक और इलाज
महात्मा गांधी ने एक बार हंसी मजाक को लेकर कहा था कि यदि मुझमें विनोद प्रियता की वृत्ति न होती तो मैं चिन्ताओं के भार से दब कर कभी का मर गया होता. यही तो मुझे चिन्ताओं में घुलने से बचाये रखती है. मैल्कम मगरीज ने भी संसार में हँसी के बद्ठे अभाव को लेकर चिंता जाहिर की थी. दरअसल आजकल की मशीनी और तेज जीवनशैली में तनाव बुरी तरह से घुसपैठ कर बैठा है. डिप्रेशन के चलते लोग मानसिक व्याधियों की चपेट में आ रहे है. और मजे की बात तो यह है कि हँसना भूल चुके लोगों को डाक्टर्स और मनोवैज्ञानिक लाफिंग थैरेपी और लाफिंग क्लब ज्वाइन करने का सुझाव दे रहे हैं. हास्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए बड़ेबड़े चिकित्सालयों में रोगियों को हँसाने तथा प्रसन्न करने के लिए हास्यविनोद की व्यवस्था मुहैया कराई जाती है. यानी हमारे गंभीर होनी की आदत, सेन्स ऑफ़ ह्यूमर की कमी और हर हांजी मजाक को लेकर उग्र हो जाने के रवैवे ने ज़िंदगी में न सिर्फ हास्यरस कम कर दिता है बल्कि हमें मानसिक तौर पर तनावग्रस्त और नीरस बना दिया है. घर में टीवी के सामने अकेले में हंसने वाले जब सामाजिक तथा सामूहिक हँसी की बात आती है तो अचानक से संस्कृति और भावनाओं के आहत होने का ढोल पीटने लगते हैं. गम्भीरता के नाम पर हर समय मुँह लटकाये, गाल फुलाये, माथे में बल और आँखों में भारीपन भरे रहने वाले व्यक्तियों ने समाज को निर्जीव और संवेदहीन सा बना दिया है.
आज हंसी और खेल में लोगों को पढाई गयी बातें ज्यादा याद रहती हैं. एक ज़माने में बड़ेबड़े राजा महाराजा स्वाँग, नौटंकी और दरबार में तनाव दूर करने के हसोड़ कलाकारों के नियुक्ति करते थे. अकबर बीरबल की हाजिरजवाबी में हास्यबोध निकाल दें तो कुह भी नहीं बचेगा. इसी तरह तेनालीराम से लेकर पंचतंत्र आदि साहित्य अपने चुटीले  हास्य के चलते आज भी पसंद किया जाता है. समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में सालों से प्रकाशित व्यंग, कार्टून, हर बड़ी हस्ती को मजाक की चाशनी में लपेटकर कटाक्ष करती आई है और सबने खुले दिल से इस पर मुस्कराहट बिखेरी है लेकिन अब हम हास्य से इतना चिढने क्यों लगे है, क्यों हम हर बात पर गंभीर हो जाते हैं, हास्य से इतना परहेज आखिर किसलिए.

जिस हास्य से मन खुश हो जाता हो उस से ऐतराज नहीं होना चाहिए. सही मायने में हास्यपूर्ण बनना और साथ में एक हंसी साझा करके लोगों को प्रोत्साहित करना, आपको लोकप्रिय और सफल बनाने में मदद कर सकता हैं. हास्य जीवन के सरल पक्ष का अनुभव करने में मदद करता है. समाज में सहिष्णुता की जो कमी लगातार महसूस की जा रही है, उसका एक कारण हास्य बोध की कमी ही है. अगर हम अपने मानसिक संकीर्ण दायरे को तोड़ते थोडा खुद पर थोडा दूसरों पर हँसना सीखे तो शायद आपकी जिन्दगी और इस दुनिया से तनाव में कमी आये.

                                                               ----RAJESH KUMAR