Wednesday, May 31, 2017


फिल्म समीक्षा-
अनारकली ऑफ़ आरा 
-- राजेश कुमार

anarkali of aarah

अनारकली ऑफ़ आरा देखी.. देर से देखने के लिए माफी. इसके शुरुआती दर्शकों में खुद को शुमार करके चले थे. खैर देर से सही, देख ली.
हर वो पत्रकार जो थोडा बहुत सिनेमाई सेन्स रखता है और मन में कहीं सिनेमा से जुड़ने का आग्रह रखता है, उसे अनारकली ऑफ़ आरा से एक सुपर सोनिक पुश मिली है. कुछ ऐसी हिम्मत जो पत्रकार बिरादरी के ही विनोद कापडी की फिल्म मिस टनक पुर हाजिर हो से मिलते मिलते कहीं रह गयी थी.
आपकी फिल्म में एक संघर्ष और जाति, समाज और वर्गभेद की हर वो झलक मिल जाती है जो आपने अपने अनुभवों से देखी और भोगी होगी. बिहार और देश के अन्य हिस्सों में अनारकली सरीखे न जाने कितने पुरुष और महिला किरदार सिस्टम के हाथों सरेआम स्टेज में नोचेघसीटे और दमित होते हैं और  पुलिस प्रशासन मूक दर्शक रहता रहता है. ऐसे में अनारकली को एंग्री यंग वीमेन की छवि में ढालकर आपने सिनेमा के सफल और आजमाए फॉरमूले में अपने मुहावरे करीने से फिट कर दिए हैं. कहीं आर्ट फिल्म की झलक तो कहीं रीजनल जैसा स्वाद देती आपकी फिल्म कम से कम संसाधन में वो सब कर जाती हैं जो प्रकाश झा की गंगाजल बड़े सितारों और संसाधनों पर सवार होकर करती है. हालंकि जबान और कथ्य के मामले में आपकी फिल्म ज्यादा प्रमाणिक दिखती है.
दिल्ली को नंगा करके दिखाने का प्रयास अच्छा है आपका. वर्ना मेट्रो और सीपी के एरियल शॉट्स और झंडेवालान की हनुमान मंदिर के लॉन्ग शॉट्स बेचकर यहाँ के लाइन प्रोड्यूसर्स मुम्बईया फिल्मकारों को बुडबक बनाते रहते हैं. दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा इतना ही बेबस और सडांध भरा  है जितना आपने  सेकण्ड हाफ में दिखाया है. नितिन फिल्म जुगाड़ में भी थे और यहाँ भी अच्छे लगते हैं. संजय मिश्रा से ऐसा काम करवाकर आपने उनके शायद दोस्तीयारी और जानपहचान के सारे कर्जे अदा कर दिए. स्वरा को तो अपनी जंजीर और डर्टी पिक्चर दोनों ही एक बार में मिल गयी. हीरामन बेहद मूल और मास्टर स्ट्रोक टाइप एबस्ट्रेक्ट किरदार था. जिस पर सबसे ज्यादा समय सोचा और बहस किया जा सकता है. आपका साहित्य, नाटक और लोकगीतों के प्रति झुकाव नहीं होता तो संगीत इतना सजीव और शाब्दिक अमरत्व से लैस नहीं होता. पूरी टीम बधाई की पात्र है और उसे टीम बनाने के लिए आप को सलाम.
मन कहता है कि अगर इस फिल्म को आप भोजपुरी दर्शकों और भोजपुरी बेल्ट के लिए ही तैयार और रिलीज करते तो ज्यादा कामयाबी हासिल करते. कामयाबी तो खैर आपके लिए कहीं भी हासिल करना मुश्किल नहीं है लेकिन नितिन चंद्रा जो प्रयास भोजपुरी फिल्मों के जरिये कर रहे हैं उसको अनारकली का साथ मिलता तो भोजपुरी दर्शकों को शायद वहां की अश्लील, लिजलिजी और भौडी फिल्मों से कुछ अलग मिलने का रास्ता खुल जाता. यह मेरी निजी राय है.
आखिर में बस इतना... कि मेरी तरह ऐसे ही एकतरफा और अनजाने रिश्तों के तारों से जुड़े हैं आप कई लोगों से. जो आपके काम, संघर्ष और सपनों को मिलते परवाजों से उत्साहित होकर नए सपने देखने और जिद को यकीन में बदलने की हिम्मत कर रहे हैं. आप परदे के पीछे और परदे के बाहर ऐसे ही खिलते , मुस्कराते और लड़ते रहे.....अगली फिल्म के लिए अभी से ढेर सारी आशाओं वाली शुभकामनाएं .....








विशेष इन्टरव्यू-
संगीत और परिवार दोनों साथ हैं - रश्मि अग्रवाल
रश्मि अग्रवाल किसी संगीत घराने से ताल्लुक नहीं रखतीं लेकिन शास्त्रीय संगीत उनकी रगरग में बसता है. अपनी दिलकश आवाज से क्लासिकल, ठुमरी, दादरा और गज़ल गाने वाली रश्मि संगीत की इस यात्रा में परिवार के सुर कभी बेसुरे नहीं होने देतीं. राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी विविध आवाज से जादू जगाने वाली रश्मि ने पिछले दिनों यूनेस्को द्वारा संचालित उजबेकिस्तान में शार्क तरुणअलारी ग्रैंड प्रिक्स प्रतियोगिता जीती है. वह इस प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली महिला हैं. गायन में हरफनमौला और संगीत के ऐसे ही कई सफल मुकाम हासिल कर चुकी शास्त्रीय संगीत कलाकार रश्मि अग्रवाल से राजेश कुमार की बातचीत हुई. पेश है मुख्य अंश.

Rashmi agarwal 

संगीत से पहला वास्ता कब पड़ाकब एहसास हुआ कि इसी क्षेत्र में जाना है ?
संगीत से वास्ता तो बचपन से ही था. घर पर रेडियो बड़े ध्यान से सुनते थे. उस वक्त गाने की कैसेट और रिकोर्ड होते नहीं थे. हम इंतज़ार करते थे कागज कलम लेकर कि फलां गाना रेडियो पर आयेगा तो उसे नोट कर लेंगे और बाद में उसे सीखेंगे. फिर कैसेट वगैरह आये और हम सीखते रहे. लेकिन बड़ा मोड आया इंटरमीडिएट के दौरान. उस दौरान हमारी एक टीचर ने मुझे गाते हुए सुना और मुझे संगीत को बतौर सब्जेक्ट लेने के लिए कहा. मैं तो संगीत का सारे गा मा भी नहीं जानते थीलेकिन वे मुझे संगीत शिक्षक कमला बोस के पास ले गयीं. वही मेरी पहली गुरु हैं. उन्हें मैंने कुछ गाकर सुनाया. उन्हें  मेरा गाना पसंद आया.  इस तरह से संगीत की विधिवत ट्रेनिंग शुरू हुई.

क्या ऐसा संभव है कि सिर्फ आवाज़ अच्छी हो और बिना किसी ट्रेनिंग या गुरु के कोई सिंगर बन जाए ?
आवाज़ तो बहुत लोगों की अच्छी होती है लेकिन समझने वाली बात यह है कि आवाज़ के साथसाथ गले में सुर भी हों. हालांकि आजकल बहुत से बच्चे ऐसे भी हैं जो इसी तरह सुनसुन कर सीखते हैं और प्रोफेशनली गाने लगते हैं. लेकिन यह बहुत दिन नहीं चलता. थोड़े दिनों के लिए आपने कोई गाना सुना, उसे कॉपी कर परफोर्म कार दिया, लेकिन बिना संगीत के गहरी समझ के आप ज्यादा समय तक सर्वाइव नहीं कर सकते.

शादी के बाद प्राथमिकताओं में बदलाव आये कभी संगीत के चलते परिवार या रिश्तों में मनमुटाव या कड़वाहट नहीं आई ?
परिवार का हमेशा साथ मिला. शादी के बाद जरूर पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते गैप आया         लेकिन मैंने परिवार को प्राथमिकता दी. उसके बाद अगर दिन में एक घंटा भी मिला तो रियाज किया. इस तरह अपनी संगीत साधना के साथ परिवार कभी पीछे नहीं छोड़ा. पति हमेशा हौसलाफजाई करते रहे.  और रही बार कड़वाहट की तो संगीत इतनी मीठी चीज है कि इसकी वजह से रिश्तों में खटास का सवाल ही नहीं. कभी ऐसा मौका आने ही नहीं दिया कि पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराकर संगीत को तवज्जो दूं. नए परिवेश में सामंजस्य बिठाने में थोडा समय जरूर लगा लेकिन संगीत और परिवार हमेशा साथसाथ रहा.

जब संगीत कार्यक्रम के सिलसिले में विदेश जाना होता है, परिवार साथ रहता है या अकेले जाती हैं ?
वैसे अक्सर मेरे पति मेरे साथ बाहर जाते हैं. अगर उनके पास समय नहीं तो बच्चे भी साथ चलते हैं.

पति या बच्चे सिर्फ रिश्ते के नाते जाते हैं या इन्हें भी संगीत से लगाव भी है ?
मेरे परिवार में अब सब कानसेन बन गए हैं. अच्छा और बुरा संगीत समझते हैं.  मेरा गाना उन्हें पसंद है  इस लिहाज से वे साथचलते हैं. मेरी बेटी तो संगीत में काफी रूचि ले रही हैहालांकि उसका रुझान क्लासिकल के बजाये वेस्टर्न की तरफ है लेकिन उसके गले में सुर बहुत अच्छा है.

एक बार जगजीत सिंह ने एक श्रोता के सवाल पर उसे डांटते हुए कहा था कि पहले गीत और गज़ल में  फर्क समझों फिर सवाल करोआप से भी कार्यकर्म के दौरान ऐसे इमेच्योर सवाल पूछे जाते है ?
कई बार हमसे भी इसी तरह के अपरिपक्व व बेतुके सवाल पूछे जाते हैं. लेकिन अगर हम ही उनका जवाब नहीं देंगे, उनकी जिज्ञासा या उत्सुकता शांत नहीं करेंगे तो वे समझेंगे कैसे.

तो यह कहना सही होगा कि ज्यादातर लोग क्लासिकल संगीत नहीं समझते ?
हां, काफी हद इस बात की तस्दीक करती हूं. मुझे लगता हैं कि स्कूल कोलेज में हमें संगीत या आर्ट को कम्पलसरी सब्जेक्ट बना चाहिए. इससे  सब संगीतकार या गायक भले ही न बन पाएं लेकिन सुनकार यानी समझदार श्रोता तो बन ही जायेंगे. उनकी संगीत को लेकर समझ तो विकसित होगी ही. 

क्लासिकल संगीत भारत में आम लोगों में कम लोकप्रिय क्यों हैआपने कभी बौलीवुड का रुख करने का नहीं सोचा ?
जो आपकी शिक्षा होती है, आप उसी को लेकर आगे बढ़ते हैं. मैं क्लासिकल को लेकर चली, उस में मास्टर डिग्री ली सो उसी साधना को आगे बढ़ाया. लेकिन शादी के बाद मैंने जरूर ठुमरी और दादर सीखा. समय के साथ बदलना जरूरी है. लिहाजा ठुमरी दादर पर काम करने के बाद मेरा रुझान सूफी की तरफ गयामैंने सूफी संतों के साहित्य का गहराई से अध्ययन किया. सूफी ऐसे विधा है जो दिल को छू जाती है. इस तरह संगीत की यात्रा के कई पड़ाव जीवन में आये और आगे भी आएंगे.

आजकल यूथ के आईपोड और स्मार्टफोन में वेस्टर्न और बौलीवुड गाने भरे हैंआपकी बेटी भी क्लासिकल के बजाये वेस्टर्न का रुझान रखती है. यूथ और आम लोग क्लासिकल से इतना दूर क्यों हैं ?

ये तो पसंद की बात है, जिसे जो अच्छा लगता है सुनता है. लोग क्लासिकल भी सुनते हैं. मेरी बेटी को भी क्लासिकल सुनना पसंद है. अब देखिये क्लासिकल है ही एक खास क्लास के लिए. इसे मास में कैसे सुना जा सकता है. जिन्हें क्लासिकल पसंद आता है वे चलताऊ संगीत नहीं सुनते. रही बात यूथ  की तो जितनी भी यूनीवर्सटी हैं वहां तो यूथ ही क्लासिकल सीख रहे हैं. बिना क्लासिकल के बेस ही नई बनता.

कौन सा गीत है जो मंच पर ज्यादा फरमाइश मे आता है?
मेरे एल्बम के गीत रंग दे मौला की काफी डिमांड आती है. राँझा राँझा भी बिना सुने कोई छोड़ता. लेकिन दमादम मस्त कलंदर गाये बिना कोई शोए एंड नहीं होता.

अभी आपने एल्बम का जिक्र किया तो याद आया कि पिछले दिनों अभय दियोल और सोनू निगम समेत कई लोगों ने टी सीरीज के कोंट्रेक्ट को लेकर सामूहिक विरोध किया था. आपके  भी एल्बम निकले हैं, क्या वाकई संगीत कम्पनियां सिंगर्स के साथ कोंट्रेक्ट की आड़ में ज्यादिती करती हैं ?
असल में संगीत कंपनियां सिंगर के साथ ऐसा अनुबंध तैयार करती हैं जो पूरी तरह से उनके फेवर में होता है. जब हम उनके साथ इस करार में बंध जाते हैं तो हमारा हमारी ही रचना पर कोई अधिकार नहीं रहता. सारा कोपीराइट उनका हो जाता है. एक बार एक बड़ी फिल्मकार ने राँझा राँझा गीत को अपनी  फिल्म में इस्तेमाल करने के लिए हमसे इज़ाज़त माँगी. लेकिन उस करार के चलते ऐसा नहीं कर पाए.

फिल्मों में सूफी गीतों का चलन बढ़ा हैकई फिल्मकार साधारण गीतों को सूफी बताकर बेच रहे हैं. असल में सूफी गीत क्या हैं ?
सूफी के बारे सबसे पहले समझा जरूरी है कि संगीत फी नहीं होत्ता. इसका जो कविता पक्ष है यानी लिरिक्स है वो सूफी होते हैं. संतों ने जो लिखा है उसे अपने अलगअलग संगीत माध्यमों से लोगों तक पहुचाना ही सूफीयाना है. जैसे रब्बी शेरगिल रौक संगीत के जरिये बुल्ले शाह गाते हैं. कोई कबीर गाता  है. नुसरत फ़तेह अली खान कव्वाली में सूफी गाते थे. मैं ठुमरी और अपने प्रयोग के साथ नए अंदाज में सूफी गाती हूँ. अगर आप कोई सूफियाना कलाम गा रहे हैं वो सुनने वालों के दिल तक पहुंच गया तो समझ लीजिए आपका उद्देश्य पूरा हो गया.

कार्यक्रम के दौरान फ़िल्मी हस्तियों से मुलाकात होती है, कभी फिल्म में गाने का ऑफर नहीं मिलता?
जब शो खत्म होता है तो बहुत सारे लोग तारीफ़ में कसीदे पढते है और भविष्य में कुछ काम करने के वादा करते हैं लेकिन लेकिन बाद में कुछ नहीं होता.

इसकी वजह बम्बई के बजाय देल्ही में रहना तो नहीं?
ऐसा नहीं है. आजकल दूरी का मसला ही कहाँ रह गया है. आप सुबह बम्बई से काम करके रात को देल्ही वापस आ सकते हैं. आजकल तो इन्टरनेट के जरिये लोग संगीत बनाते हैं, गाते हैं और  फिर वो  कहीं और रिकोर्ड होता हैमास्टर होता है और मिक्सिंग होती है.

गाने के अलावा आप गीत भी लिखती हैं?
मैं गीत भी लिखती हूं और अपने एल्बम के सभी गीत संगीतबद्ध भी करती हूं. पहले मैंने ऊषा उथुप के लिए लिखा है. उनकी एल्बम शायरारी के टाइटल ट्रैक के अलावा  चार गीत लिखे थे. जवाहर बट्टल के साथ जुडी थी. अब अपने लिए गाने लिखती हूं. पंजाबी से पोइटिक ट्रांसलेशन भी करती हूं. बुल्ले शाह, रूमीराबिया वगैरह का अनुवाद किया है.
फिलहाल संगीत को लेकर क्या योजनायें हैं
इन दिनों एक सूफी एल्बम पर काम कार रही हूं. जल्दी  ही आपके सामने आएगा.  इसके अलावा सूफी साहित्य पर अध्यन तो जारी है. बाकी समय परिवार के खुशनुमा लम्हे भी तो बिताने होते हैं.


             
                                                
   ----- राजेश कुमार

Monday, May 1, 2017

एक्सक्लूसिव इन्टरव्यू 
प्रेमचंद, मंटो बनना था लेकिन पोर्न लेखक बन गया- राहुल बग्गा


Rahul bagga




गैंग्स औफ वासेपुर फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर अखिलेश जयसवाल बतौर निर्देषक अपनी पहली फिल्म मस्तराम लेकर आए हैं. काल्पनिक बायोपिक पर बेस्ड यह फिल्म हिंदी के पहले पोर्न व इरोटिका लेखक मस्तराम के बारे में है. गौरतलब है कि 80-90 के दशक में मस्तराम के छदम नाम से पीले पन्नों में सिमटा लुग्दी साहित्य उत्तर भारत के स्टेशनॉन, सड़कों और बुकस्टालों पर खासा लोकप्रिय था. फिल्म में मस्तराम का लीड किरदार राहुल बग्गा निभा चुके हैं. 10 साल थिएटर में काम कर चके राहुल फिल्म मस्तराम से पहले कई विज्ञापन फिल्मों समेत अनुराग कष्यप की फिल्म लव षव ते चिकन खुराना में अहम किरदार निभा चुके हैं. हाल ही में फिल्म थिएटर और टीवी से जुड़े कई पहलुओं पर उन से राजेश कुमार की बातचीत हुई.

film mastram


फिल्म मस्तराम बोल्ड औफबीट और नौनकमर्षियल सी है, डर नहीं लगा कि नवोदित कलाकार हैं, मास तक पहंच नहीं पाएंगे?
मुझे लगता है कि मस्तराम से ज्यादा कमर्षियल सब्जेक्ट कुछ हो नहीं सकता. और कभी औफबीट या कमर्षियल के बारे में सोचा नहीं. पर हां, जब अखिलेष जायसवाल से फिल्म को लेकर बात हुई, तभी तय कर लिया था कि कहानी अगर पोर्न राइटर की है तो इसका मतलब यह नहीं कि हम इसमें सैक्स सींस या पार्न एलिमेंट डालकर बेचने की कोषिष करेंगे. फिल्म एक ऐसे भोलेभाले लेखक की कहानी है जो पे्रमचंद, मंटो और केदारनाथ जैसा लेखक बनने को संशर्शरत है लेकिन सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियां उसे ऐसी चीज लिखने पर मजबूर कर देती हैं जिस चीज को वह खुद भी नहीं जानता था.

मुंबई की बसों से फिल्म के पोस्टर्स हटाए गए, फिल्म पर अष्लीलता बढ़ाने का आरोप लगा, कितनी सचाई है इस बात में?
सिर्फ गलतफहमी के चलते ऐसा हुआ. चूंकि हमने कहानी का ऐसा बैकड्राप चुना है जिसने पोर्न को हिंदी भाशा में इंट्रोडयस किया. इसलिए सबाके लगता हक् यह भी पौर्न फिल्म होगी. जबकि फिल्म में न तो सैक्स है और न ही पोर्न. हां ये कामुक जरूर है पर इसमें वल्गैरिटी नहीं है. मस्तराम की कहानियां अपने ही ढंग में कलात्मक और हास्यास्पद होती थीं. हमेे भी अपनी बात कहने के लिए हास्य का सहारा लिया है. 

मस्तराम  पोर्न साहित्य लेखक है, इसे परदे विजुलाइज करना सैंसर बोर्ड और दर्षकों के लिहाज से कितना मुष्किल रहा?
चुनौती तो थी. हमारे पास दो रास्ते थे पहला उनका लिखा विजुअल में एजइटइज बदलते जो समाज कभी नहीं स्वीकारता दूसरा आर्टिस्टिक अ्रप्रोच अपनाना. हमने दूसरा रास्ता अपनाया. हमने कौमिक ऐलिमेंट डाला. हमने मस्तराम को सटायर में यूज करने की कोषिष की..


जब बायोपिक बनती है तो फरहान अख्तर मिल्खा सिंह से मिलकर रोल तैयार करते हैें लेकिन मस्तराम के बारे में कोई नहीं जानता, फिर कैसे परदे पर उतारा मस्तराम को?
सच कह रहे हैं. षुरुआत में मेरे लिए भी कठिन था कि कैसे उस किरदार को ड्राफट करेंगे जो किसी ने देखा ही नहीं. मुझे लगता है कि मस्तराम आम लोगों के दिल में बसता था. जब मैं थिएटर में था तभी मस्तराम को पढ़ा था. मेरा परपज अलग होता था. उन की लिखावट से  कलाकारों को अभिनय में दृष्यात्मकता समझने में आसानी होती है. आप कह सकते हैं कि मेरी तैयारी तभी से चल रही है.




मस्तराम को दर्षक या समाज स्वीकारने में हिचकता क्यों है?
मस्तराम के साथ त्रासदी यह है कि एक तो वह पोर्न लिखता था वो भी हिंदी में. आज भी हमारे यहां का यूथ को हिंदी डाउन मार्केट मानता है. अगर हम किसी अंग्रेजी के पोर्न राइटर पर फिल्म बनाते तो उसकी स्वीकार्यता बढ़ जाती. मस्तराम की किताबें छिपछिपकर सब पढ़ते थे लेकिन स्वीकार कोई नहीं करता था. समाज के इसर रवैए को हमे दिखाया है. हालांकि अनुराग कष्यप इम्तियाल अली और तिग्मांषु जैसे फिल्मकारों के चलते लोगों की स्वतंत्र और नए सिनेमा प्रति सोच बदली है. वे अच्छे और बुरे सिनेमा में फर्क करना सीख गए हैं.

एक नए कलाकर को फिल्मों में काम पाना कितना आसान या मुष्किल प्रोसेस है?
सबसे जरूरी है खुद पर विष्वास करना कि जो वो करना चाहता उसे एक दिन जरूर हासिल होगा. किसी के लिए सफलता 15 दिन में आ जाती है कोई सालों इंतजार करता है. मेरे लिए तो यह एक कभी न खत्म होने वाली जर्नी है.

आपके लिए अभिनय के क्या मायने हैं/?
मैं समझता हूं कि अभिनय ही ऐसा माध्यम है जिस के जरिए आप वह सब कर सकते हैं जो असल जिंदगी में नहीं कर पाते. जैसे मैं इंट्रोवर्ट हूं. न कभी किसी से झगड़ा हुआ और न किसी को प्रपोज किया. लेकिन थिएटर या फिल्मों के जरिए आप अपनी जीवन के सभी इमोषन निकाल सकते हैं. हंस सकते हैं, रो सकते हैं, किसी से प्यार का इजहार भी कर सकते हैं.

फिल्म की रिलीज के बाद राहुल करियर के लिहाज से खुद को कहां देखते हैं?

मस्तराम के बाद लोग जानने लगे हैं. काम भी मिलने लगा है. मैं चाहता हूं कि इस तरह की अच्छी स्क्रिप्ट मेरे पास आएं. चूंकि थिएटर से हूं इसलिए हमेषा कोषिष रहेंगी कि जिस फिल्म में भी काम करूं उसमें समाज के लिए कोई सार्थक संदेष जरूर हो. 

-- राजेश कुमार