Tuesday, July 6, 2010

सेंसर, फिल्‍में और राजनीति


सेंसर, फिल्‍में और राजनीति

हमारे देश में जब भी किसी समिति या बोर्ड का गठन किया जाता है, वह जल्द ही अपने लक्ष्य से भटक कर कुछ प्रभावशाली लोगों के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है. भारत सरकार द्वारा गठित सेंसर बोर्ड भी आजकल इसी राह पर चल रहा है. यह बोर्ड अपने अधिकारों का प्रयोग निज़ी हितों को ध्यान में रखकर कर रहा है. यही वजह है कि पिछले कुछ समय से बोर्ड के फैंसलों और पक्षपातपूर्ण रवैये को लेकर सवाल उठते रहे हैं. दरअसल सेंसर को इस्तेमाल करने का गुर कपूर, भट्ट और चोपड़ा जैसे लोग ही जानते हैं. छोटे निर्माताओं की फिल्मों के लिए सारे क़ानूनों और सांस्कृतिक मूल्यों का पुलिंदा आड़े आ जाता है. जबकि बड़े निर्माताओं की फिल्मों में कला की दृष्टि या कहानी की मांग का बहाना बनाकर कुछ भी दिखा दिया जाता है. यही वजह है कि परेशान फिल्म निर्माता सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता पर सवाल उठाने लगे हैं.
यहां सवाल यह भी है कि क्या सेंसर बोर्ड का काम सोनिया गांधी करेंगी या फिर बोर्ड के सदस्य इस क़ाबिल नहीं हैं कि वे फिल्म को सेंसर कर सकें. क्या सोनिया गांधी का अनापत्ति पत्र ही सर्टिफिकेट है. होना तो यह चाहिए था कि बोर्ड पहले फिल्म को सेंसर करता और फिर उस पर सोनिया गांधी के एनओसी की मांग करता. सेंसर के ऐसे पक्षपाती रवैयों की लिस्ट का़फी लंबी है.
आखिर सेंसर बोर्ड का उद्देश्य क्या है? इसके नियम-क़ानून सभी पर समान रूप से लागू क्यों नहीं होते हैं? इन्हीं सवालों पर जब चौथी दुनिया ने कुछ निर्माता-निर्देशकों से बात की तो यह सच सामने आया कि सेंसर बोर्ड के ज्यूरी मेंबर अपने ओहदे का प्रयोग कुछ खास लोगों के फायदे के लिए करते हैं. इन खास लोगों में उनके क़रीबी निर्माता-निर्देशक, राजनीतिक हस्तियां और व्यवसायिक एवं पारिवारिक रिश्तेदार शामिल हैं. सेंसर के दोहरे रवैये के शिकार निर्देशक संजय गढ़वी के मुताबिक़, उनकी फिल्म तेरे लिए में एक डायलॉग में शिट शब्द पर आपत्ति जताते हुए सेंसर ने पूरा सीन ही उड़ा दिया था, जबकि गंगाजल और इश्क़िया में खुलेआम दी गईं गालियां सेंसर को सुनाई नहीं दीं. ऐसा ही अनुभव ब्लैक फ्राइडे और देव डी बना चुके अनुराग कश्यप को हुआ, जिनकी लगभग सभी फिल्मों पर सेंसर ने टांग अड़ाई. चाहे वह ब्लैक फ्राइडे, गुलाल, नो स्मोकिंग हो या पांच. इसमें पांच अभी भी डब्बे में बंद है. बोर्ड जिस तरह से फिल्मों को संपादित करता (कतरता) है, वह उसके दोहरे मापदंड वाली मानसिकता का परिचायक है. यहां कुछ उदाहरणों का ज़िक्र ज़रूरी है. राजकपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी द्वारा झरने में पारदर्शी साड़ी में वक्ष प्रदर्शन एवं क्लोजअप में स्तनपान और देव आनंद की फिल्म हम नौजवान में एक अवयस्क लड़की (तब्बू) के अंत:वस्त्र को खलनायक द्वारा खींचने के दृश्य सहज रूप से दिखा दिए गए, तो वहीं बी आर चोपड़ा की फिल्म इंसाफ का तराजू में अश्लील दृश्यों की भरमार होने के बावज़ूद मात्र हल्की-फुल्की काट-छांट की गई. इससे सा़फ है कि इन फिल्म निर्माताओं का कितना रसू़ख है और नए-नवेले निर्देशकों की फिल्मों में एक छोटा सा किस सीन भी सेंसर बोर्ड को खटकने लगता है. हम यह नहीं कहते कि सेंसर बोर्ड हिंसा और अश्लीलता को यू हीं पास कर दे. हमारा तो स़िर्फ यही कहना है कि बोर्ड सबके साथ समान रूप से पेश आए. यह तो थी रसू़खदार निर्माताओं की सेंसर में दखल की बात. अब हम आपको बताते हैं कि किस तरह से राजनीतिक लोग अपने फायदे और ऩुकसान के आधार पर फिल्में सेंसर कराते हैं. 1975 के आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खास लोगों ने गुलज़ार की फिल्म आंधी पर इसलिए प्रतिबंध लगवा दिया था कि वह इंदिरा गांधी के जीवन से मेल खाती थी. दीपा मेहता की फायर और मीरा नायर की कामसूत्र विदेशों में रिलीज हुईं, लेकिन भारत में नहीं हो पाईं. न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने के बाद इन फिल्मों को प्रदर्शन की मंजूरी मिली. फूलन देवी के जीवन पर आधारित शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन का मामला कई महीनों तक न्यायालय में चलता रहा और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म के प्रदर्शन को मंजूरी दी.1973 में बनी फिल्म गरम हवा एक ऐसे मुस्लिम परिवार की कहानी थी, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं जाना चाहता था. बलराज साहनी द्वारा अभिनीत इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंधित कर दिया. जबकि इसी पृष्ठभूमि पर कई फिल्में वह बड़ी आसानी से पास कर चुका है. इसी तरह सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित निर्माता-निर्देशक दिनेश ठाकुर की फिल्म को सेंसर बोर्ड ऑफ इंडिया सर्टिफिकेशन ने सेंसर करने से मना करते हुए सोनिया गांधी के एनओसी लेटर की मांग कर दी थी. इस पर ठाकुर अदालत जा पहुंचे और क़ानूनी लड़ाई में उन्हें जीत हासिल हुई. सवाल तो यह है कि ठाकुर जैसे कितने लोग हैं, जो क़ानूनी पचड़ों में पड़ने से नहीं कतराते.
यहां सवाल यह भी है कि क्या सेंसर बोर्ड का काम सोनिया गांधी करेंगी या फिर बोर्ड के सदस्य इस क़ाबिल नहीं हैं कि वे फिल्म को सेंसर कर सकें. क्या सोनिया गांधी का अनापत्ति पत्र ही सर्टिफिकेट है. होना तो यह चाहिए था कि बोर्ड पहले फिल्म को सेंसर करता और फिर उस पर सोनिया गांधी के एनओसी की मांग करता. सेंसर के ऐसे पक्षपाती रवैयों की लिस्ट का़फी लंबी है. बोर्ड की क़ाबिलियत का अंदाज़ा सीबीएफसी मुंबई के भूतपूर्व रीजनल हेड विनायक आज़ाद के बयान से पता चलता है. आज़ाद कहते हैं किहम फिल्म समीक्षक नहीं हैं, इसलिए फिल्म में क्या दिखाया जाए, क्या न दिखाया जाए, यह तय करना हमारा काम नहीं है. तो फिर सेंसर क्या तय करेगा? क्या वह सिर्फ सरकारी खर्चे पर पलने वाला एक चालू विभाग बना रहेगा और यहां भी राजनीति का खेल चलता रहेगा? बग़ैर समीक्षा किए फिल्मों पर प्रतिबंध लगता रहेगा और रसूखदारों की फिल्मों को सा़फ-सुथरी फिल्म होने का सर्टिफिकेट दिया जाता रहेगा? अभी तो स़िर्फ ठाकुर और राखी (एलबम में कमीनी शब्द के लिए क़ानूनी लड़ाई) जैसे लोग ही अदालत में चुनौती दे रहे हैं, लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं, जब सेंसर बोर्ड के इस रवैये की मार झेल रहा हर निर्देशक उसे अदालत में घेरेगा और फज़ीहत करेगा. अभी भी वक़्त है कि सरकार जागे और बोर्ड में ऐसे लोगों की नियुक्ति करे, जिनकी कैंची स़िर्फ फिल्म देखे, न कि निर्माता-निर्देशक का बड़ा नाम और हैसियत.

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