Friday, November 26, 2010

निर्माता-निर्देशकः कल, आज और कल



अमोल गुप्ते निर्देशन के उद्देश्य से तारे ज़मीं पर की कहानी लेकर किसी निर्माता के बजाय आमिर सरीखे अभिनेता के पास पहुंचते हैं. आमिर को कहानी पसंद आती है और वह अभिनय के साथ-साथ बतौर निर्माता फिल्म से जुड़ जाते हैं. प्रोडक्शन के बीच में ही आमिर अमोल को बाहर करके खुद निर्देशक की कैप संभाल कर मुना़फे के साथ-साथ अवाड्‌र्स से अपनी झोली भर लेते हैं. यह हालत है आज निर्देशकों की. कल तक जो अभिनेता रोल मांगने के लिए उनके आगे-पीछे घूमते थे, आज वे खुद को निर्माताओं-निर्देशकों का आका समझ रहे हैं. वे भूल गए हैं कि स्टारडम का जो नशा उन पर हावी है, वह उन्हीं निर्माताओं-निर्देशकों की ही देन है.
श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्माता-निर्देशक आज भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं, लेकिन ये कमर्शियल सिनेमा की परिधि से बाहर रहे. 16 एमएम का सिनेमा 35 और 70 एमएम से गुज़रता हुआ जब आईमैक्स फॉर्मेट तक पहुंचा तो इस दरम्यान बहुत कुछ बदल चुका था. तकनीक , आर्थिक ढांचे और सिनेमा के प्रति समाज का नज़रिया भी बदल गया. जो खुद को ढाल पाया, वही टिका. अगर मौजूदा हालात के कारणों की बात करें तो असल कारण बाज़ार का बदलाव ही रहा.
निर्माता-निर्देशक और अभिनेता वे महत्वपूर्ण कड़ियां हैं, जिन पर हिंदी सिनेमा की नींव टिकी है, लेकिन आज येकमज़ोर होती जा रही हैं. कभी अभिनेताओं को खोजकर और उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाकर रुपहले पर्दे पर उतारने वाले फिल्म निर्माता आज उन्हीं के हाथों की कठपुतली बनने के लिए मज़बूर हैं. आमिर, शाहरु़ख, ऐश्वर्या एवं अक्षय जैसे सितारे आज खुद निर्देशक और कहानी चुनते हैं. इन्हें पर्दे पर उतारने वाले इनके गॉड फादर क्रमश: मंसूर खान, राजकंवर, राहुल रवैल एवं प्रमोद चक्रवर्ती पर्दे की चकाचौंध में कहीं खो गए हैं. ज़्यादातर निर्माता-निर्देशक अब किसी साइड बिजनेस के ज़रिए रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं या फिर मु़फलिसी में जी रहे हैं. सुभाष घई जैसा शोमैन अब बड़े सितारों के भरोसे मुक्ता आटर्‌‌स को बचाने की फिराक़ में है. यूटीवी एवं श्री अष्टविनायक जैसी कारपोरेट कंपनियां अभिनेताओं को मुंहमांगी रक़म और मुना़फे में हिस्सेदारी देकर निर्माण के क्षेत्र में टिकी हुई हैं.
लेकिन हालात एकदम से नहीं बदले. इस बदलाव को समझने के लिए अभिनेता और निर्माता-निर्देशकों के रिश्तों को शुरुआत से समझना होगा. 7 जुलाई 1896 को बॉम्बे में ल्युमियर बंधु जब अपनी पहली सिनेमेटोग्राफी एग्जिविसन दिखा रहे थे (जो भारत की कथित तौर पर पहली फीचर फिल्म है), तब तक अभिनेता पैदा नहीं हुए थे. जब प्रिंटिंग, पेंटिंग एवं जादूगरी में माहिर दादा साहेब फाल्के ने 1913 में राजा हरिश्चंद्र रची, तब तक स़िर्फ निर्माता-निर्देशक ही सिनेमा को स्थापित करने की ज़द्दोजहद में जुटे हुए थे. निर्माण के दौरान अभिनेताओं की आवश्यकता महसूस हुई. वेश्याएं और भांड तक फिल्म में अभिनय के लिए राजी नहीं थे. हिंदी सिनेमा के पहले निर्माता-निर्देशक फाल्के ने विज्ञापन दिया कि जो भी व्यक्ति अभिनय का इच्छुक हो, वह उनसे संपर्क करे. इस तरह अभिनेता अस्तित्व में आए. 1940 की घटना है. बॉम्बे टॉकीज ने डालडा की एड फिल्म बनाई, जो संभवत: पहली भारतीय एड फिल्म थी. उसमें काम करने वाली सुमीत नाइक नामक एक अभिनेत्री को चाल के लोगों ने यह कहकर निकलवा दिया कि यहां शरी़फ लोग रहते हैं. तब अभिनेता अभिनेत्रियों को वेश्या और भांड का पर्याय मानते थे. हमने फाल्के और डालडा का ज़िक्र स़िर्फ यह बताने के लिए किया कि उस समय अभिनेता-अभिनेत्रियों की क्या हैसियत थी. आज के कलाकार स्टारडम के नशे में चूर हैं, लेकिन तब वे अपने अस्तित्व के लिए तरस रहे थे. फाल्के जैसे निर्माता-निर्देशकों ने सिनेमा को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए घर का सामान बेचा, अभिनेता खोजे और उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाईं, तब जाकर पर्दे पर दिखने वाला रंगा-पुता कलाकार स्टार कहलाया. जबकि वे खुद पर्दे के पीछे साइलेंट मेकर का रोल अदा करते रहे.
1930 तक हिंदी सिनेमा एक छोटी और कमाऊ इंडस्ट्री में तब्दील हो चुका था. फिर स्टूडियो सिस्टम शुरू हुआ. बॉम्बे टॉकीज, प्रभात फिल्म कंपनी, वाडिया मूवीटोन और मद्रास टॉकीज आए. अभिनेताओं को इन स्टूडियो में मासिक वेतन मिलता था. 1940 के आसपास स्टूडियो सिस्टम टूटा और अभिनेता अपना मेहनताना खुद तय करने लगे. इसी दौरान फॉर्मूला फिल्मों और उनमें काले धन का आगमन हुआ. देखते ही देखते अभिनेता साइनिंग अमाउंट मांगने लगे. 50 के दशक में सोहराब मोदी, राजकपूर, गुरुदत्त और देवानंद स्टार बनकर उभरे. बढ़ता स्टार पावर और फिल्मों का बढ़ता बाज़ार देखते हुए अभिनेता खुद निर्माता-निर्देशक बनने लगे. राजकपूर शोमैन बन गए, जबकि देवानंद अपने बैनर नवकेतन के लिए आज भी फिल्में निर्देशित कर रहे हैं. इसी दौर में निर्माता-निर्देशक के हाथों बने सुपर स्टार उन्हीं के हाथों से फिसलने लगे. राजकपूर का रुतबा रूस तक पहुंच गया. सिनेमाई संस्था का ढांचा टूटने लगा. निर्माता-निर्देशकों के दफ्तरों के चक्कर काटने वाले अभिनेताओं के घरों पर निर्माता-निर्देशक कतार लगाने लगे. साइनिंग अमाउंट की जगह वे मुना़फे में हिस्सा मांगने लगे. कभी मुगल-ए-आज़म को के आसिफ, मदर इंडिया को महबूब खान की फिल्म बताने वाले दर्शक और मीडिया आज दबंग को सलमान और सिंह इज किंग को अक्षय की फिल्म बता रहे हैं. अभिनव, अनीज़ और हिरानी के नाम बाद में आते हैं. यह ट्रेंड बताता है कि बनाने वाले ही खुद अपनी पहचान को तरस रहे हैं.
हालांकि 1970 के दशक के कुछ निर्माता-निर्देशक इस बदलाव से बचे रहे. श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्माता-निर्देशक आज भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं, लेकिन ये कमर्शियल सिनेमा की परिधि से बाहर रहे. 16 एमएम का सिनेमा 35 और 70 एमएम से गुज़रता हुआ जब आईमैक्स फॉर्मेट तक पहुंचा तो इस दरम्यान बहुत कुछ बदल चुका था. तकनीक , आर्थिक ढांचे और सिनेमा के प्रति समाज का नज़रिया भी बदल गया. जो खुद को ढाल पाया, वही टिका. अगर मौजूदा हालात के कारणों की बात करें तो असल कारण बाज़ार का बदलाव ही रहा. अभिनेता निर्माता-निर्देशकों से पहले बाज़ार की बाजीगरी समझ गए. जब वे प्रतिभा और तकनीक तलाशने में लगे रहे, तब अभिनेता खुद को बड़े ब्रांड के तौर पर स्थापित करते रहे. आज इस ब्रांड का क़द इतना बढ़ गया है कि इसे बनाने वाले भी बौने साबित हो गए. ग़लती निर्माता-निर्देशकों की भी है. अधिक मुना़फा कमाने के लिए स्थापित कलाकारों पर निर्भरता, स्क्रिप्ट और तकनीक में दखलंदाज़ी के चलते ही ऐसी स्थिति पैदा हुई. कॉरपोरेट घरानों के फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूदने से भी इनकी साख घटी. इसके अलावा मीडिया की इमेज मेकिंग पॉलिसी भी ज़िम्मेदार है. कुल मिलाकर जिन निर्माता-निर्देशकों ने आर्थिक निवेश के ज़रिए फिल्में बनाईं, सितारे बनाए, वे फर्श पर हैं और अभिनेता अर्श पर. दरअसल सिनेमा भी एक औद्योगिक संस्था है. अभिनेता इस संस्थागत ढांचे को तोड़-मरोड़ कर खुद को तराशने वालों को ही गुमनामी के अंधेरे में ढकेल रहे हैं.

                                                                               ----RAJESH S. KUMAR

Wednesday, November 3, 2010

पर्दे की चमक में अंधे खिलाड़ी



हाल ही में क्रिकेट से जुड़ी दो बड़ी खबरें सुर्खियों में रहीं. पहली यह कि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के पहले संस्करण का खिताब जीतने वाली राजस्थान रॉयल्स टीम के छह खिलाड़ी सोनी पर प्रसारित होने वाले रिएलिटी शो इंडियन आयडल-5 में दिखेंगे. दूसरी यह कि निखिल आडवाणी की आगामी फिल्म पटियाला हाउस की शूटिंग के लिए कमेंटेटर संजय मांजरेकर एवं निखिल चोपड़ा समेत कई खिलाड़ी छुट्टी ले रहे हैं. ताज़्जुब की बात यह है इन दोनों खबरों में सब कुछ था, सिवाय क्रिकेट के.

क्रिकेटरों का फिल्मों के प्रति पहला प्यार सलीम अजीज दुर्रानी के रूप में 1973 में आई फिल्म इशारा में नज़र आया था. जब 1983 का विश्व कप जीतने का खुमार लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था और उसी दौरान 1985 में फिल्म कभी अजनबी थे से संदीप पाटिल, सैयद किरमानी और लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर ने सिल्वर स्क्रीन पर पदार्पण किया. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ गई.

जबसे इस देश में आईपीएल और आईसीएल के बहाने क्रिकेट का व्यवसायीकरण हुआ है, तभी से इस खेल को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ लिया गया है. हर कोई ज़्यादा से ज़्यादा अंडे पाने की चाह में मुर्गी को ही हलाल करने में जुटा है. खिलाड़ियों की बात करें तो इन्हें पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध का ऐसा चस्का लगा है कि दिन-रात ये उसी में डूबे रहना चाहते हैं.

सीरीज़ से पहले चोटिल होकर मैदान से बाहर हो जाएंगे, लेकिन आराम के बजाय अधिक से अधिक पैसा कमाने की जुगत भिड़ाने में लग जाएंगे. विज्ञापन, कैंपेनिंग, लेटनाइट पार्टीज और टीवी तो इनका पुराना धंधा है, पर पिछले कुछ समय से इन्हें फिल्मी पर्दे पर दिखने का शौक चढ़ा है. कई खिलाड़ी फिल्में पर्दे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को बेताब हैं. पटियाला हाउस में जहां कई खिलाड़ी मेहमान भूमिकाओं में नज़र आएंगे, वहीं सचिन के भी एक फिल्म में काम करने की खबरें आ रही हैं. सचिन से पहले भारतीय टेस्ट टीम के कप्तान अनिल कुंबले भी मीरा बाई नॉट आउट में मेहमान भूमिका में नज़र आए थे. क्रिकेट खिलाड़ियों ने बेशक़ ऑफ़ द फील्ड फिल्मों में काम किया हो, लेकिन एकाध खिलाड़ी (सलिल अंकोला) की कामयाबी को अपवाद मान लिया जाए तो अधिकांश खिलाड़ियों का फिल्मों के चक्कर में करियर तक बर्बाद हो चुका है.

बहरहाल, क्रिकेटरों का फिल्मों के प्रति पहला प्यार सलीम अजीज दुर्रानी के रूप में 1973 में आई फिल्म इशारा में नज़र आया था. जब 1983 का विश्व कप जीतने का खुमार लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था और उसी दौरान 1985 में फिल्म कभी अजनबी थे से संदीप पाटिल, सैयद किरमानी और लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर ने सिल्वर स्क्रीन पर पदार्पण किया. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ गई. इस फ़िल्म में क्लाइव लॉयड ने भी अतिथि भूमिका निभाई थी. गावस्कर ने कभी अजनबी थे के अलावा मराठी फ़िल्म सावली प्रेमाची एवं जाकोल और हिंदी फिल्म मालामाल में असफल पारी खेली. इसी तरह का फ्लॉप शो अनर्थ में सचिन के दोस्त विनोद कांबली ने दिखाया. मैच फिक्सिंग की सज़ा भुगत रहे हरफनमौला जडेजा को सुनील शेट्टी की होम प्रोडक्शन फिल्म खेल में मौका मिला, लेकिन हाल वही ढाक के तीन पात. फिल्म मुझसे शादी करोगी में हरभजन सिंह, जवागल श्रीनाथ, पार्थिव पटेल एवं आशीष नेहरा ने भी अतिथि भूमिकाएं निभाई थीं. कुल मिलाकर सभी के सितारे डूब गए. अगर इतनी मेहनत ये क्रिकेट के लिए करते तो शायद इनका करियर यादगार बन जाता. भारतीय क्रिकेटरों के अलावा पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर मोहसिन खान भी बॉलीवुड में हाथ आज़मा चुके हैं. मोहसिन जे पी दत्ता की फिल्म बंटवारा और महेश भट्ट की फिल्म साथी में नज़र आए. कुछ समय पहले निर्माता संघमित्रा चौधरी की फ़िल्म मैं और मेरी हिम्मत में रावलपिंडी एक्सप्रेस शोएब अख्तर द्वारा काम करने की खबरों ने सबका ध्यान आकर्षित किया था, लेकिन उन्होंने लंबी कवायद के बावजूद एक्टिंग नहीं की. फिलहाल उनकी जगह डोपिंग में फंसे पाक स्पीड स्टार मोहम्मद आसिफ इस फ़िल्म में अभिनय करने के कारण सुर्खियों में हैं. ग़ौरतलब है कि दोनों का ही करियर ढलान पर है.

ब्रेट ली भी फिल्म विक्ट्री के जरिए सिल्वर स्क्रीन पर क़दम रख चुके हैं. इसमें उनके अलावा कई और दिग्गज क्रिकेटर मसलन स्टुअर्ट क्लार्क, जेसन गिलेस्पी, माइकल हसी, साइमन केटिच एवं एलन बॉर्डर, इंग्लैंड के साइमन जोंस एवं साजिद महमूद, न्यूजीलैंड के क्रेग मैकमिलन, डेरेल टफी, नाथन एसतल एवं मार्टिन क्रो के अलावा प्रवीन कुमार, आर पी सिंह, दिनेश कार्तिक, पंकज सिंह सहित कई जाने-पहचाने भारतीय युवा क्रिकेटर फिल्मों में काम कर चुके हैं. जबकि फ़िल्म में अंपायर का किरदार ऑस्ट्रेलिया के डेरेल हार्पर ने निभाया. इसी तरह ज़्यादातर खिलाड़ियों को जब अभ्यास सत्र में शामिल होकर प्रैक्टिस करनी चाहिए, वे फिल्मों में लगे रहते हैं. नतीजतन हमारी टीम के खेल में निरंतरता का अभाव रहता है. कोई भी खिलाड़ी आज सेंचुरी बना लेता या टीम को हारने से बचा लेता है तो इस बात की गारंटी नहीं है कि वह अगली पारी में भी अच्छा खेलेगा. पर यह बात पक्की है कि वह कल किसी टीवी कार्यक्रम, विज्ञापन या फिल्म में ज़रूर दिखाई देगा. पर्दे की चमक में अंधे ये खिलाड़ी सब कुछ करेंगे, सिवाय खेलने के.

सिनेमा के बाजार में फंसा मीडिया



मीडिया की गिरती साख पर चिंता जताते हुए लिखा गया कि पत्रकारिता और मीडिया तो बाज़ार की नब्ज़ नहीं पकड़ पाए, उल्टे बाज़ार ने मीडिया की नब्ज़ पकड़ ली. बात का़फी हद तक सही भी है. आज अ़खबार का हर पन्ना और टीवी कार्यक्रम कोई खबर दिखाने से पहले प्रायोजकों को खुश करता है. लेकिन यहां मसला है मीडिया और बाज़ार के सबसे मज़बूत खिलाड़ी बॉलीवुड यानी हिंदी सिनेमा का. एक समय तक अ़खबार और तब के इकलौते टीवी यानी दूरदर्शन पर अपनी झलक दर्ज कराने के लिए तरसने वाला सिनेमा आज हर अ़खबार और चैनल के प्राइम टाइम न्यूज सेगमेंट में मौजूद है. भले ही किसानों की आत्महत्या, महंगाई और राजनीतिक मुद्दों की खबर चले या न चले, पर बिग बी की ट्विटिंग और बिपाशा एवं शिल्पा के जिस्म दिखाऊ योग के कार्यक्रम ज़रूर चलते हैं.

पिछले कुछ दशकों से मीडिया ने सिनेमा के लिए पीआर यानी प्रचारक और ठेकेदार का काम करना शुरू कर दिया. फिल्मों को हिट-फ्लॉप करने का ज़िम्मा उसने खुद ले लिया. जो निर्माता अपनी फिल्म के इश्तेहार, मेकिंग फुटेज, फर्स्ट प्रोमो और कलाकारों के साक्षात्कार मुहैया कराता है, मीडिया उसकी फिल्म को हिट कराने का ज़िम्मा ले लेता है. और जो निर्माता खर्च नहीं कर सकता, उसकी फिल्म तो डूबी समझिए.

अचानक यह हुआ कैसे? सिनेमा आज मीडिया के अर्थोपार्जन का मुख्य ज़रिया कैसे बन गया? यह बदलाव इसलिए हुआ, क्योंकि पिछले कुछ दशकों से मीडिया ने सिनेमा के लिए पीआर यानी प्रचारक और ठेकेदार का काम करना शुरू कर दिया. फिल्मों को हिट-फ्लॉप करने का ज़िम्मा उसने खुद ले लिया. जो निर्माता अपनी फिल्म के इश्तेहार, मेकिंग फुटेज, फर्स्ट प्रोमो और कलाकारों के साक्षात्कार मुहैया कराता है, मीडिया उसकी फिल्म को हिट कराने का ज़िम्मा ले लेता है. और जो निर्माता खर्च नहीं कर सकता, उसकी फिल्म तो डूबी समझिए. पहले मीडिया का यह कारोबार एक सीमित दायरे में सिमटा हुआ था, पर अब तो यह धंधा कुछ ज़्यादा ही गंदा होता जा रहा है. फिल्मों को ज़बरन हिट और फ्लॉप कराने के लिए कुछ चैनल्स बाक़ायदा कैंपेन चलाते हैं, जिसमें चैनल मालिक से लेकर समीक्षक तक सभी शामिल होते हैं.

आइए, मीडिया के कुछ गंदे खेलों का ज़िक्र करते हैं. 2009 की फिल्म चांदनी चौक टू चाइना के कुछ पेड प्रिव्यू रिलीज के एक दिन पहले यानी गुरुवार को रखे गए. आम तौर पर मीडिया को मुफ्त में फिल्म दिखाई जाती है, लेकिन व्यवसायिक कारणों के चलते फिल्म सभी के लिए प्रीमियर की गई. शो खत्म होते ही फिल्म से जुड़े निगेटिव फीडबैक एसएमएस और फोन के ज़रिए देश भर में फैलाए जाने लगे. हालांकि इसमें ज़्यादातर वही लोग थे, जो अक्षय के बढ़ते कद से परेशान थे. एक चैनल के खुलासे के मुताबिक़, उक्त निगेटिव रिव्यू करन और शाहरुख की पीआर कंपनियों से संबंधित थे, लेकिन यहां मीडिया का रवैया चौंकाने वाला था. रिलीज से पहले ही टाइम्स समेत अधिकतर अ़खबारों ने समीक्षा में फिल्म की जमकर आलोचना करते हुए उसे द्रोणा, टशन एवं लव स्टोरी-2050 से भी बदतर बता डाला. जबकि दर्शकों के मुताबिक़ यह फिल्म टाइमपास कॉमेडी थी. लेकिन रातोरात मीडिया ने फिल्म के खिला़फ ऐसा कैंपेन चलाया कि रिलीज से पहले ही फिल्म फ्लॉप! कारण, अक्षय भारतीय मीडिया से ज़्यादा फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करने में लगे हुए थे. किस्से और भी हैं. 2007 में दीवाली के मौके पर ओम शांति ओम एवं सांवरिया रिलीज हुईं. दीवाली में ज़्यादातर बिग प्रोडक्शन की फिल्में ही रिलीज होती हैं और मुना़फे के चक्कर में दूसरी छोटी फिल्में आगे-पीछे खिसका दी जाती हैं. ऐसे में शाहरुख के सामने अपनी फिल्म रिलीज करने की हिम्मत दिखाई संजय लीला भंसाली ने. सांवरिया को जैसे ही दीवाली में रिलीज करने की घोषणा की गई, तभी से दोनों फिल्मों की टक्कर के बहाने अ़खबार और चैनलों ने जनता को यह बताना शुरू कर दिया कि ओम शांति ओम के सामने सांवरिया कितनी छोटी फिल्म है. ज़ाहिर है शाहरुख को मीडियामैन यूं ही नहीं कहते.

पीआर का सिद्धांत होता है कि कुछ समय पहले से कैंपेन चलाकर किसी भी उत्पाद के प्रति लोगों की न स़िर्फ राय बदली जाए, बल्कि उन्हें यह मानने पर मजबूर किया जाए कि उसका ही उत्पाद बेहतर है. इसके लिए भले ही ओम शांति ओम जैसी चलताऊ मसाला फिल्म के सामने एक रूमानी फिल्म को घटिया साबित कर दिया जाए. यह सिद्धांत काम कर गया. बाद में भंसाली को सार्वजनिक तौर पर कहना पड़ा कि वह खुली आलोचना के लिए तैयार हैं और मीडिया कैंपेन उन्हें फेल नहीं कर सकते. ताज़ा उदाहरण राम गोपाल वर्मा की फिल्म रण का लिया जा सकता है. यह फिल्म टीआरपी की लड़ाई में किसी भी हद तक गिरने वाले दो मीडिया ग्रुपों पर आधारित थी. फिल्म काल्पनिक थी, पर मीडिया को लगा कि यह फिल्म उसे उसका गिरहबान दिखाने की कोशिश कर रही है. बस फिर क्या था, रामू और रण के खिला़फ ऐसा कैंपेन चलाया गया कि फिल्म को फ्लॉप करके ही दम लिया गया. आजकल जनता भी पहले रिव्यू देखती है फिर फिल्म देखने जाती है. जबकि ज़्यादातर रिव्यू पेड होते हैं. ऐसी कई बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया जाता है, पर रिलीज के दौरान मीडिया के मार्केटिंग रवैए के चलते उन्हें फ्लॉप करार दिया गया था. इनमें राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता पुकार, रज़िया सुल्तान, नायक, ब्लैक फ्राइडे, ज़ख्म, मेरा नाम जोकर और संघर्ष के नाम लिए जा सकते हैं.

खैर फिल्मों का व्यापार तो चलता रहेगा, पर असल चिंता मीडिया के व्यवसायिक रु़ख और गिरते स्तर की है. आज मीडिया बाज़ार और मुना़फे के चंगुल में कुछ ऐसा फंसा है कि वह फिल्मों का बॉक्स ऑफिस और पीआर डिपार्टमेंट भर बनकर रह गया है. इसीलिए जनता और सिनेमा, दोनों ही तरफ से मीडिया की विश्वसनीयता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं.

सेंसर शब्‍द ही बेमानी है



इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारे यहां सेंसर बोर्ड स़िर्फ सतही तौर पर फिल्मों और सर्टिफिकेट की भूलभुलैया में उलझा रहता है, जबकि समस्या की जड़ कुछ और है. सेंसर सामाजिक दुष्प्रभाव की बात करता है. इसी के आधार पर वह उन सभी मसालों को आम लोगों तक पहुंचने से रोकने का ढिंढोरा पीटता है, जो संस्कृति के खिला़फ हो. लेकिन इन्हें रोकने में वह कितना सफल होता है, यह सर्वविदित है. पिछले तीन अंको में हमने उन मसलों और कंटेंट पर बात की थी जो सेंसर के अपारदर्शी काले चश्मे से गुज़रते हैं. इस आ़िखरी कड़ी में सेंसर के लापरवाह रवैये और उन अनसेंसर्ड जरियों की बात करेंगे जिन्हें न तो बोर्ड सेंसर करता है और न ही ऐसा करना उसके लिए संभव है. असंभव इसलिए नहीं है कि वह कुछ कर नहीं सकता, बल्कि इसलिए किवह कुछ करना ही नहीं चाहता. असलियत यह है कि इनकी धार सेंसर की कैंची से ज़्यादा तेज़ है.

ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि बोर्ड सिर्फ अश्लील और हिंसात्मक दृश्यों को सेंसर करने के लिए बना है. जानकारी के लिए बता दें कि सेंसरसिप के कुछ मापदंड हैं. फिल्में 4 श्रेणियों- यू, यू/ए, ए और एस में वर्गीकृत की जाती हैं. संक्षिप्त में समझें तो यू श्रेणी के सर्टिफिकेट की फिल्म सभी दर्शकों के लिए होती है. यू/ए श्रेणी की फिल्म वयस्क के अलावा अभिभावक की मौजूदगी में बच्चे भी देख सकते हैं. ए यानी एडल्ट फिल्में स़िर्फ वयस्कों के लिए होती हैं और आ़िखरी श्रेणी एस के अंतर्गत सेंसर्ड फिल्में डॉक्टरों समेत एक विशेष दर्शक वर्ग के लिए होती हैं.

देश में फिल्मों के अलावा पोर्न और पायरेटेड फिल्मों का बाज़ार, इंटरनेट का वृहत संसार, हॉलीवुड फिल्मों का गैरसंपादित ऑनलाइन वितरण, अश्लील साहित्य, येलो जर्नलिज्म, सैटेलाइट चैनलों का सीधा अनकट प्रसारण जैसे कई ऐसे माध्यम हैं जो लोगों की आम दिनचर्या में शुमार हो गए हैं. इन माध्यमों से प्रचारित और प्रसारित होने वाला कंटेंट हर बच्चे की पुहंच में है और फिल्मों से कहीं ज़्यादा वल्गर और दुष्प्रभावी होता है. इतने सारे माध्यमों के आगे सेंसर बौना सा प्रतीत होता है. ऑन लाइन पाइरेसी के माध्यम से देशी-विदेशी फिल्मों के अनसेंसर्ड प्रिंट डाउनलोड किए जाते है. इंटरनेट पर हज़ारों अश्लील वेबसाइट मौजूद हैं. भारत में इंटरनेट सेवाओं का प्रयोग करने वाले जानते होंगे की हिंदी की पहली सॉफ़्ट-पॉर्न कॉमिक कैरेक्टर पर बेस्डीर्रींळींरलहरलहळ.लेा साइट को रणवीर कपूर विवाद के बाद भारत सरकार ने बैन कर दिया है. लेकिन वो यह भी जानते होंगे कि सविता भाभी जैसी कई और देशी-विदेशी साइट्‌स इंटरनेट के 80 फीसदी हिस्से में मौजूद हैं. सेंसर बोर्ड भी यह अच्छी तरह जानता है, लेकिन कुछ नहीं करता. रही बात क़ानून की तो सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि भारत में साइबर लॉ में प्रावधान इतने कड़े नहीं हैं कि इसको रोका जा सके. इसी तरह मस्तराम के देसी संस्करण और डेबोनियर से लेकर प्लेब्वॉय जैसी मैग्ज़ीन कोई भी बच्चा किसी भी दुकान से खरीद सकता है. घर में बच्चे का बोलना शुरू होता कि उसके हाथ में मोबाइल और कंम्प्यूटर थमा दिया जाता है. मोबाइल पाते ही एमएमएस स्कैंडल्स और सेक्स क्लिप का कारोबार शुरू हो जाता है. पहले से ही सिनेम से रिया-अस्मित, शाहिद-करीना और लक्ष्मी राय समेत कई अभिनेत्रियों के अश्लील एमएमएस चर्चा में रहे हैं. वेबसाइट तो औपचारिक तौर पर ही सही लेकिन 18+ की शर्त रख देती है, पर मोबाइल कंटेंट के मामले में तो यह अवरोध भी नहीं है. सिंगल स्क्रीन में चलने वाली एडल्ट फिल्मों में वयस्क और अवयस्क कोई भी घुस सकता है. हाथ में टॉर्च लिए खड़ा गेटमैन लगभग सेंसर की तरह ही बर्ताव करता है. उसे मालूम है कि नियम-क़ानून क्या हैं, फिर भी वह आंख मूंदे केवल खड़ा रहता है. इस तरह सैकड़ों ऐसे विषय और सेक्टर्स हैं जहां सेंसर की भूमिका हो सकती है पर नहीं है.

ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि बोर्ड सिर्फ अश्लील और हिंसात्मक दृश्यों को सेंसर करने के लिए बना है. जानकारी के लिए बता दें कि सेंसरसिप के कुछ मापदंड हैं. फिल्में 4 श्रेणियों- यू, यू/ए, ए और एस में वर्गीकृत की जाती हैं. संक्षिप्त में समझें तो यू श्रेणी के सर्टिफिकेट की फिल्म सभी दर्शकों के लिए होती है. यू/ए श्रेणी की फिल्म वयस्क के अलावा अभिभावक की मौजूदगी में बच्चे भी देख सकते हैं. ए यानी एडल्ट फिल्में स़िर्फ वयस्कों के लिए होती हैं और आ़खिरी श्रेणी एस के अंतर्गत सेंसर्ड फिल्में डॉक्टरों समेत एक विशेष दर्शक वर्ग के लिए होती हैं. बाकी फिल्में ग़ैर क़ानूनी रूप से प्रदर्शित होती हैं. इन चारों के अलावा सॉफ्ट और हार्डकोर पॉर्न फिल्मों की भी श्रेणी है. यह विदेशों में मान्य है, भारत में नहीं. इन श्रेणियों के अंतर्गत स़िर्फ अश्लील दृश्य ही नहीं बल्कि किसी जाति, समुदाय, राष्ट्र और धर्म विरोधी संवाद और दृश्य, अतिरेक हिंसा, महिलाओं और विकलांगों पर नकारात्मक टिप्प़णी और द्वइर्थी संवादों पर भी कैंची चलती है. इसलिए अतिरेक हिंसा वाली फिल्म भी एडल्ट सर्टिफिकेट के साथ पास होती हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि उपरोक्त श्रेणियां और क़ायदे-क़ानून स़िर्फ काग़ज़ी हैं. जिसका जितना रसूख, उतना लचीला बोर्ड.इन हाइटेक ऑप्शंस से लड़ने कि लिए भले ही सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन के सेंट्रल बोर्ड की मुख्य बैठकों में अध्यक्ष शर्मिला टैगोर बोर्ड को हाईटैक बनाने का बात कहती हों या मॉर्डनाइजेशन के युग में ऑनलाइन तरीके से सर्टिफिकेट देने की प्रकिया अपनाने की बात करती हों पर हक़ीक़त में यह स़िर्फ बैठकों में होने वाली खानापूर्ति मात्र है.

जहां देश की ऐंबेंसी का पोर्टल पोर्न वेबसाइट में तब्दील हो जाता है, वहां सेंसर के क्या मायने रह जाते हैं. जब तक उपरोक्त माध्यमों को बारीकी से समझकर सेंसर करने का रास्ता नहीं निकाला जाएगा, तब तक देश में सेंसर शब्द ही बेमानी है.

सेंसर का दोहरा मापदंड




गांधी जी ने एक बार सेंसरशिप को अपने अंदाज़ में परिभाषित करते हुए कहा था, इफ यू डोंट लाइक समथिंग, क्लोज़ योर आइज़. साउथ फिल्मों का सेंसर बोर्ड इस फलसफे के दोनों पहलुओं का इस्तेमाल करता है. अपने मुताबिक़ आंखें खोलता और बंद करता है. शायद इसीलिए इसे आए दिन क़ानूनी तमाचे पड़ते रहते हैं. ताज़े मामले में पांच साल की लंबी लड़ाई के बाद काधल आरंगम को प्रदर्शन की अनुमति मिल ही गई. इस फैसले ने एक बार फिर से सेंसर बनाम निर्माता-निर्देशक विवाद को हवा दे दी है. वर्ष 2004 में पूरी हो चुकी वेलू प्रभाकरण निर्देशित फिल्म काधल आरंगम को तमिल सिनेमा की सबसे सेक्सी फिल्म का दर्जा दिया गया है. चेन्नई सेंसर बोर्ड ने फिल्म को न्यूड सीन्स और ओपन सेक्स को बढ़ावा देने वाले कंटेंट के चलते अस्वीकार कर दिया था. इसके बाद वेलू ने दिल्ली ट्रिब्यूनल को फिल्म दिखाई. शोभा दीक्षित की अध्यक्षता में फिल्म देखी गई, लेकिन नतीजा फिर वही रहा. इस तरह कई कमेटियों के चक्कर काटने के बाद फिल्म प्रदर्शन के लिए तैयार हो पाई है.

यह बुनियादी तथ्य सेंसर की समझ से बाहर है कि सवा अरब की आबादी वाले इस देश में स़िर्फ 15,000 थिएटर हैं, जबकि इंटरनेट एवं टेलीविजन चैनलों की पहुंच की कोई सीमा नहीं है. वहां रात होते ही सेक्स एवं हिंसा का कॉकटेल शुरू हो जाता है. ऐसे में बोर्ड को इतना तो समझ में आता ही होगा कि जनता एकबारगी टिकट लेकर सिनेमाघर ज़्यादा जाती होगी या घर में बैठकर टीवी एवं इंटरनेट पर समय गुज़ारती होगी.

हम साउथ सिनेमा में सेंसरशिप की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि भारत में अश्लील फिल्मों का सबसे बड़ा बाज़ार यही है. पोर्न वेबसाइट पर अगर इंडियन पोर्न कंटेंट होता है तो वह यहीं का होता है. यहां की संस्कृति और फिल्मों में उत्तेजकता हमेशा से ही हावी रही है. मल्लू शब्द भी यहीं की उत्पत्ति है. एक आंकड़े के मुताबिक़, यहां रोज़ लगभग 50 एडल्ट फिल्में बनती हैं और उनकी शूटिंग खुले बीच एवं फॉर्म हाउसों में होती है. कई अभिनेत्रियां किसी पेपेराज़्ज़ी, सेक्स स्कैंडल और एमएमएस कांड में लिप्त मिलती हैं. अभिनेत्री खुशबू तो अक्सर अपने बेबाक बयानों के चलते विवादित रहती हैं. यहां सेक्स और हिंसा के बिना फिल्म बनाना नामुमकिन है. (हालांकि कुछ फिल्म निर्माता इसके अपवाद भी हैं) ऐसी जगह सेंसरशिप क्या इतनी आसान है कि कुछ फिल्मों के चंद दृश्य काटने से उसकी ड्यूटी पूरी हो जाए. कुछ मामलों का ज़िक्र करते हैं, जहां सेंसर अपनी कैंची की धार दिखा रहा था. राम गोपाल वर्मा के सहायक रह चुके समीर की फिल्म दोगम नादांथाथू को बेडरूम और चुंबन दृश्यों के चलते ए सर्टिफिकेट दिया गया. कावेरी नदी जल विवाद पर बनी फिल्म थाम्बीवुड्‌यन को चेन्नई सेंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया. इसी तर्ज पर मद्रास हाईकोर्ट ने कमल हासन की फिल्म दशावतारम में कुछ विवादित धार्मिक प्रसंगों के चलते आपत्ति जताई थी. कमल की कामेडी फिल्म मुंबई एक्सप्रेस को एक गाने के चलते ए सर्टिफिकेट देने की कोशिश की गई. जहां का सिनेमाई मिज़ाज़ ही ऐसा है और सिनेमा को टीवी, इंटरनेट एवं पायरेसी से भी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है, वहां चंद फिल्में सेंसर करने से क्या फर्क़ पड़ता है. अगर सचमुच बोर्ड एवं सरकार की मंशा यह है कि समाज से हिंसा और अश्लीलता को कम किया जाए तो वे फिल्मों के बजाय उन सभी माध्यमों को बैन करें, जिन पर हिंसा और अश्लीलता का प्रदर्शन होता है और उसे बढ़ावा मिलता है. यह बुनियादी तथ्य सेंसर की समझ से बाहर है कि सवा अरब की आबादी वाले इस देश में स़िर्फ 15,000 थिएटर हैं, जबकि इंटरनेट एवं टेलीविजन चैनलों की पहुंच की कोई सीमा नहीं है. वहां रात होते ही सेक्स एवं हिंसा का कॉकटेल शुरू हो जाता है. ऐसे में बोर्ड को इतना तो समझ में आता ही होगा कि जनता एकबारगी टिकट लेकर सिनेमाघर ज़्यादा जाती होगी या घर में बैठकर टीवी एवं इंटरनेट पर समय गुज़ारती होगी. इस बात पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है कि यह हिंदी सिनेमा नहीं है, जहां थोड़ी सी अश्लीलता और धार्मिक विवाद आग लगा देते हैं. कई बुनियादी मसले हैं, जिनके साथ सेंसर बोर्ड अपना तारतम्य नहीं बैठा पाता. काधल आरंगम का किस्सा भले ही फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की जीत हो, पर इस सब के बीच दर्शकों की सुध किसी को नहीं है, जिनके लिए यह सारा तामझाम बनाया जाता है. समाज बोल्ड हो चुका है. जितनी तेज़ी से समाज की सोच का दायरा बढ़ा है, सेंसर उतनी ही तेज़ी से संकीर्ण हुआ है. अब रामायण की जगह रियल्टी शो और कायमचूर्ण एवं दंत मंजन के विज्ञापनों की जगह एक्स एवं एडिक्शन डियोड्रेंट के अश्लील विज्ञापन चल रहे हैं. बोर्ड एवं सरकार को विजय आनंद से सबक लेने की ज़रूरत है, जो बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं. उन्होंने कहा था कि पोर्न फिल्में लगभग हर जगह खुलेआम बिक रही हैं और देखी जा रही हैं. इनसे लड़ने का यही तरीका है कि बोर्ड इस तरह की फिल्मों को क़ानूनी मान्यता देकर सिनेमाहाल में दिखाए. अगर किसी समस्या को जड़ से खत्म नहीं कर सकते तो उसे ग़ैरक़ानूनी तरीके से होने से रोक तो सकते हैं. साउथ सिनेमा का अपना मिज़ाज़ और चटकीला रंग है. इसलिए हिंदी सिनेमा की तर्ज पर सेंसरसिप नहीं चल सकती. यहां की संस्कृति, दर्शकों की मानसिकता और इंटरटेनमेंट वैल्यू को समझना बहुत ज़रूरी है. इसके आधार पर ही मापदंडों को बदला जाए. तब जाकर सेंसरशिप के सही मायने निकल कर सामने आएंगे. वरना वेलू जैसे जागरूक निर्देशक क़ानूनी चुनौतियां देते रहेंगे और सेंसर बोर्ड अपनी

विज्ञापन का खेल और सेंसर




सेंसर बोर्ड की कैंची सामाजिक दुष्प्रभाव की दुहाई देते हुए फिल्मों को तो अपने दोहरे मापदंड से काटती-छांटती रहती है, लेकिन वह यह भूल जाती है कि समाज पर फिल्मों से कहीं ज़्यादा असर विज्ञापनों का होता है, जो दिन में सैकड़ों बार दिखाए जाते हैं. अगर सेंसर बोर्ड को इस बात का खयाल होता तो वह विज्ञापनों को भी उसी कैंची से सेंसर करता, जिससे फिल्मों को करता है. सेंसर की दोहरी मानसिकता का नमूना देखिए कि जहां एक ओर रेडियो और टीवी पर कंडोम इस्तेमाल करने के फायदे बताने वाले कई विज्ञापनों को छूट मिली हुई है, वहीं फिल्म हैलो में गुल पनाग द्वारा बोले गए शब्द कंडोम को हटाने का आदेश दिया गया है.

इसी तरह अ़खबारों और टीवी पर दिखाए जाने वाले गर्भ निरोधक गोलियों एवं कंडोम के विज्ञापनों में आपत्तिजनक और अश्लील चित्रों का प्रयोग होता है, लेकिन आर्थिक महत्व को देखते हुए धड़ल्ले से इनका प्रसारण और प्रकाशन हो रहा है.

क्या उक्त विज्ञापन लोगों तक नहीं पहुंचते या फिर उनसे पैसा ज़्यादा मिलता है? ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि जब फिल्मों के लिए सेंसर है तो विज्ञापनों के लिए क्यों नहीं? दरअसल विज्ञापनों और फिल्मों का निर्माण एक दूसरे के पूरक के तौर पर किया जाता है. अलबत्ता फिल्में काफी हद तक विज्ञापनों पर ही निर्भर रहती हैं. जब फिल्में बननी शुरू हुईं, उससे पहले ही विज्ञापनों का दौर शुरू हो चुका था.

पहले प्रिंट माध्यमों से विज्ञापन होता था. बाद में सिनेमाघरों में फिल्मों के प्रदर्शन से पूर्व विज्ञापन दिखाने का ट्रेंड शुरू हुआ, जो आज तक जारी है. इन्हें एक तरह से शॉर्ट फीचर फिल्मों की श्रेणी में रख सकते हैं. दोनों ही चलचित्र माध्यमों के ज़रिए अपना-अपना प्रभाव रखते हैं. इसलिए होना तो यह चाहिए कि जितना ध्यान फिल्मों को सेंसर करते समय रखा जाता है, उतना ही ध्यान विज्ञापनों को सेंसर करते व़क्त रखा जाए. ऐसा इसलिए भी, क्योंकि फिल्मों को तो विभिन्न वर्गों का सर्टिफिकेट देकर एक खास वर्ग को देखने से रोका जा सकता है, लेकिन विज्ञापनों का सेंसर न होने से वे सभी उम्र के लोगों को बराबर दिखाई देते हैं. केबल और डीटीएच के इस दौर में दिन-रात विज्ञापनों से ही टीवी चैनल्स की कमाई होती है. ऐसे में सभी तरह के अनसेंसर्ड कमर्शियल विज्ञापन दिन-रात प्रसारित होते रहते हैं.

हालांकि पिछले साल एक दर्शक की शिकायत पर बोर्ड ने अंडरवियर के दो विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया था. इन विज्ञापनों में एक मॉडल अंडरवियर को धोते हुए अश्लील एक्प्रेशन देती है. इसी तरह एक डियोड्रेंट का विज्ञापन भी उत्तेजकता की अति के चलते बैन किया गया. पेप्सी के विज्ञापन में एक नाबालिग बच्चे को कोल्ड ड्रिंक की ट्रे को खिलाड़ियों के लिए ग्राउंड में ले जाते हुए दिखाया गया था. बाद में ह्यूमन राइट्‌स गु्रप ने शिकायत दर्ज करते हुए कहा कि इससे बालश्रम को बढ़ावा मिलता है. नतीजतन बोर्ड को यह विज्ञापन प्रतिबंधित करना पड़ा. इसी तरह रिन और टाइड डिटर्जेंट की आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते सेंसर को अपना कर्तव्य याद आया था. यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि उक्त सभी प्रतिबंध जनता की शिकायत के बाद लगाए गए. मतलब यह कि उससे पहले बोर्ड को कोई सुध ही नहीं थी.

पहले ऐसा नहीं था. दूरदर्शन के दौर में बोर्ड फिर भी काफी सजग था. जितना सख्त वह फिल्मों के लिए था, उतना ही विज्ञापनों के लिए. यहां तक कि सप्ताहांत में दिखाए जाने वाले विज्ञापनों और फिल्मों को सेंसर के अलावा दूरदर्शन द्वारा भी काटा-छांटा जाता था. कुछ ऐसे उदाहरणों पर नज़र डालते हैं. कई साल पहले कामसूत्र कंडोम के विज्ञापन पर जब संसद में सवाल उठा, तब दूरदर्शन पर उसका प्रसारण बंद किया गया और एडवर्टाइजिंग स्टैंडड्‌र्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) को भी शिकायत भेजी गई. अक्टूबर 1991 की डेबोनियर पत्रिका में मार्क रॉबिंसन और पूजा बेदी के अश्लील विज्ञापन पर भी काफी शोरशराबा हुआ था. मिलिंद सोमन और मधु सप्रे पर नग्नावस्था में फिल्माया गया एक शू कंपनी का विज्ञापन तो बहुचर्चित ही है. ग़ौरतलब है कि इसे भी बैन किया गया था. लेकिन आज ऐसे सैकड़ों विज्ञापन हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे हैं और बोर्ड खामोश है. जब कोई जागरूक दर्शक अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी के नाते शिकायत दर्ज कराता है, तब जाकर बोर्ड की नींद टूटती है. छोटे निर्माताओं की फिल्मों एवं विज्ञापनों के लिए बोर्ड को सारे क़ानून और सांस्कृतिक मूल्य याद आ जाते हैं, जबकि बड़े निर्माताओं की फिल्मों में क्रिएटिविटी, कला की दृष्टि या कहानी की मांग का बहाना बनाकर कुछ भी दिखा दिया जाता है. यही वजह है कि आज लोग सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता पर सवाल उठाने लगे हैं.

Tuesday, July 6, 2010

सेंसर, फिल्‍में और राजनीति


सेंसर, फिल्‍में और राजनीति

हमारे देश में जब भी किसी समिति या बोर्ड का गठन किया जाता है, वह जल्द ही अपने लक्ष्य से भटक कर कुछ प्रभावशाली लोगों के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है. भारत सरकार द्वारा गठित सेंसर बोर्ड भी आजकल इसी राह पर चल रहा है. यह बोर्ड अपने अधिकारों का प्रयोग निज़ी हितों को ध्यान में रखकर कर रहा है. यही वजह है कि पिछले कुछ समय से बोर्ड के फैंसलों और पक्षपातपूर्ण रवैये को लेकर सवाल उठते रहे हैं. दरअसल सेंसर को इस्तेमाल करने का गुर कपूर, भट्ट और चोपड़ा जैसे लोग ही जानते हैं. छोटे निर्माताओं की फिल्मों के लिए सारे क़ानूनों और सांस्कृतिक मूल्यों का पुलिंदा आड़े आ जाता है. जबकि बड़े निर्माताओं की फिल्मों में कला की दृष्टि या कहानी की मांग का बहाना बनाकर कुछ भी दिखा दिया जाता है. यही वजह है कि परेशान फिल्म निर्माता सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता पर सवाल उठाने लगे हैं.
यहां सवाल यह भी है कि क्या सेंसर बोर्ड का काम सोनिया गांधी करेंगी या फिर बोर्ड के सदस्य इस क़ाबिल नहीं हैं कि वे फिल्म को सेंसर कर सकें. क्या सोनिया गांधी का अनापत्ति पत्र ही सर्टिफिकेट है. होना तो यह चाहिए था कि बोर्ड पहले फिल्म को सेंसर करता और फिर उस पर सोनिया गांधी के एनओसी की मांग करता. सेंसर के ऐसे पक्षपाती रवैयों की लिस्ट का़फी लंबी है.
आखिर सेंसर बोर्ड का उद्देश्य क्या है? इसके नियम-क़ानून सभी पर समान रूप से लागू क्यों नहीं होते हैं? इन्हीं सवालों पर जब चौथी दुनिया ने कुछ निर्माता-निर्देशकों से बात की तो यह सच सामने आया कि सेंसर बोर्ड के ज्यूरी मेंबर अपने ओहदे का प्रयोग कुछ खास लोगों के फायदे के लिए करते हैं. इन खास लोगों में उनके क़रीबी निर्माता-निर्देशक, राजनीतिक हस्तियां और व्यवसायिक एवं पारिवारिक रिश्तेदार शामिल हैं. सेंसर के दोहरे रवैये के शिकार निर्देशक संजय गढ़वी के मुताबिक़, उनकी फिल्म तेरे लिए में एक डायलॉग में शिट शब्द पर आपत्ति जताते हुए सेंसर ने पूरा सीन ही उड़ा दिया था, जबकि गंगाजल और इश्क़िया में खुलेआम दी गईं गालियां सेंसर को सुनाई नहीं दीं. ऐसा ही अनुभव ब्लैक फ्राइडे और देव डी बना चुके अनुराग कश्यप को हुआ, जिनकी लगभग सभी फिल्मों पर सेंसर ने टांग अड़ाई. चाहे वह ब्लैक फ्राइडे, गुलाल, नो स्मोकिंग हो या पांच. इसमें पांच अभी भी डब्बे में बंद है. बोर्ड जिस तरह से फिल्मों को संपादित करता (कतरता) है, वह उसके दोहरे मापदंड वाली मानसिकता का परिचायक है. यहां कुछ उदाहरणों का ज़िक्र ज़रूरी है. राजकपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी द्वारा झरने में पारदर्शी साड़ी में वक्ष प्रदर्शन एवं क्लोजअप में स्तनपान और देव आनंद की फिल्म हम नौजवान में एक अवयस्क लड़की (तब्बू) के अंत:वस्त्र को खलनायक द्वारा खींचने के दृश्य सहज रूप से दिखा दिए गए, तो वहीं बी आर चोपड़ा की फिल्म इंसाफ का तराजू में अश्लील दृश्यों की भरमार होने के बावज़ूद मात्र हल्की-फुल्की काट-छांट की गई. इससे सा़फ है कि इन फिल्म निर्माताओं का कितना रसू़ख है और नए-नवेले निर्देशकों की फिल्मों में एक छोटा सा किस सीन भी सेंसर बोर्ड को खटकने लगता है. हम यह नहीं कहते कि सेंसर बोर्ड हिंसा और अश्लीलता को यू हीं पास कर दे. हमारा तो स़िर्फ यही कहना है कि बोर्ड सबके साथ समान रूप से पेश आए. यह तो थी रसू़खदार निर्माताओं की सेंसर में दखल की बात. अब हम आपको बताते हैं कि किस तरह से राजनीतिक लोग अपने फायदे और ऩुकसान के आधार पर फिल्में सेंसर कराते हैं. 1975 के आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खास लोगों ने गुलज़ार की फिल्म आंधी पर इसलिए प्रतिबंध लगवा दिया था कि वह इंदिरा गांधी के जीवन से मेल खाती थी. दीपा मेहता की फायर और मीरा नायर की कामसूत्र विदेशों में रिलीज हुईं, लेकिन भारत में नहीं हो पाईं. न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने के बाद इन फिल्मों को प्रदर्शन की मंजूरी मिली. फूलन देवी के जीवन पर आधारित शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन का मामला कई महीनों तक न्यायालय में चलता रहा और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म के प्रदर्शन को मंजूरी दी.1973 में बनी फिल्म गरम हवा एक ऐसे मुस्लिम परिवार की कहानी थी, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं जाना चाहता था. बलराज साहनी द्वारा अभिनीत इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंधित कर दिया. जबकि इसी पृष्ठभूमि पर कई फिल्में वह बड़ी आसानी से पास कर चुका है. इसी तरह सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित निर्माता-निर्देशक दिनेश ठाकुर की फिल्म को सेंसर बोर्ड ऑफ इंडिया सर्टिफिकेशन ने सेंसर करने से मना करते हुए सोनिया गांधी के एनओसी लेटर की मांग कर दी थी. इस पर ठाकुर अदालत जा पहुंचे और क़ानूनी लड़ाई में उन्हें जीत हासिल हुई. सवाल तो यह है कि ठाकुर जैसे कितने लोग हैं, जो क़ानूनी पचड़ों में पड़ने से नहीं कतराते.
यहां सवाल यह भी है कि क्या सेंसर बोर्ड का काम सोनिया गांधी करेंगी या फिर बोर्ड के सदस्य इस क़ाबिल नहीं हैं कि वे फिल्म को सेंसर कर सकें. क्या सोनिया गांधी का अनापत्ति पत्र ही सर्टिफिकेट है. होना तो यह चाहिए था कि बोर्ड पहले फिल्म को सेंसर करता और फिर उस पर सोनिया गांधी के एनओसी की मांग करता. सेंसर के ऐसे पक्षपाती रवैयों की लिस्ट का़फी लंबी है. बोर्ड की क़ाबिलियत का अंदाज़ा सीबीएफसी मुंबई के भूतपूर्व रीजनल हेड विनायक आज़ाद के बयान से पता चलता है. आज़ाद कहते हैं किहम फिल्म समीक्षक नहीं हैं, इसलिए फिल्म में क्या दिखाया जाए, क्या न दिखाया जाए, यह तय करना हमारा काम नहीं है. तो फिर सेंसर क्या तय करेगा? क्या वह सिर्फ सरकारी खर्चे पर पलने वाला एक चालू विभाग बना रहेगा और यहां भी राजनीति का खेल चलता रहेगा? बग़ैर समीक्षा किए फिल्मों पर प्रतिबंध लगता रहेगा और रसूखदारों की फिल्मों को सा़फ-सुथरी फिल्म होने का सर्टिफिकेट दिया जाता रहेगा? अभी तो स़िर्फ ठाकुर और राखी (एलबम में कमीनी शब्द के लिए क़ानूनी लड़ाई) जैसे लोग ही अदालत में चुनौती दे रहे हैं, लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं, जब सेंसर बोर्ड के इस रवैये की मार झेल रहा हर निर्देशक उसे अदालत में घेरेगा और फज़ीहत करेगा. अभी भी वक़्त है कि सरकार जागे और बोर्ड में ऐसे लोगों की नियुक्ति करे, जिनकी कैंची स़िर्फ फिल्म देखे, न कि निर्माता-निर्देशक का बड़ा नाम और हैसियत.