Thursday, September 1, 2016

जातिगत भेदभाव में जकड़ी सिनेमाई बिरादरी

 
फ्रेंच पुरस्कार कांस से पुरस्कृत हिंदी फिल्म मसान का नायक दीपक चौधरी डोम है और अपने खानदानी पेशे को आगे बढ़ाते हुए काशी के एक बनारस के एक घाट में मुर्दों को जलने का काम करता है. दीपक कसबे के लड़की शालू गुप्ता की ओर आकर्षित होता है और एक दो मुलाकातों में प्रेमप्रसंग बन जाता है. एक दफा दीपक अपनी मित्र मंडली के बीच अपने प्रेम के किस्से चटकारे लगा के सुना रहा होता है तभी एक मित्र बनारसी लहजे में टोकता है, “ गुरु, प्यारव्यार तो बहुत हो गया पर लौंडिया अपर कास्ट है और तुम डोम. समझ रहे हो न.. उसको अपने बारे में बता तो दिए हो ना... बाद में दिक्कत हो जाएगी, पहले बताए दे रहे हैं ..  इतना सुनते ही दीपक का चेहरा मुरझा जाता है और खुद को नीच जाति का स्वीकृत करते हुए वह कहता है कि अबे अबकी बार मिलेंगे तो बता देंगे. बहरहाल अगले घटना क्रम में सशालू तीर्थ यात्रा से लौटते समय बस दुर्घटना में मर जाती है और दीपक को उसकी लाश जलानी पड़ती है. इस तरह तथाकथित ऊंची जाति की लडकी का फिर से निम्न जाति के लड़के से मिलन नहीं हो पाता.
याद आता है फिल्म शोले का प्रकरण. इसकी एक अनोखी और सामाजिक सरोकारी चश्मे से विश्लेषण यह भी है कि नायक जय पिछड़ी जाति से है और उच्च वर्ण के ठाकुर की विधवा से प्रेम करने लगता है. मामला एक तरफ़ा नहीं है. विधवा की भी इस प्रेम को मूक सहमती है. लेकिन फिल्म के निर्माता निर्देशक में  शायद समाज के जातिगत ढाँचे को तोड़ने न तो हिम्मत थी और न ही नीयत. इसलिए इन्हें मिलाने के बजाए संकीर्ण रास्ता निकला गया और जय को मरवा दिया जाता है.
अलग अलग समाज और समयकाल में रिलीज हुई फिल्म मसान और शोले के एक जैसे दिखते प्रकरणों में  जिस तरह  दो असमान जाति के लोगों को मिलाने के साहसी कदम के बजाए जिस तरह नाटकीय मौत का दृश्य रचा गया है वह फिल्म इंडस्ट्री की मानसिक संकीर्णता और यहाँ फ़ैली जातिगत सडांध की ओर इशारा करते हैं. यहाँ भी हिन्दू धर्मं के ज्यादातर पाखण्ड,  पूजापाठ और अंधविश्वास के साथ जातिगत भेदभाव की भावना पल रही है. हर दौर में फ़िल्मी बिरादरी का परंपरागत रूढ़िवादी तबका दलित और पिछड़े समाज को लेकर नाकभौं सिकोड़ता चला आ रहा है.

ऊंची जातियीं का दबदबा
सामाजिक सरोकारों को भारत में ढेरों फिल्में बनीं पर इनमें सदियों से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था का चित्रण नहीं के बराबर हुआ है. सवर्ण हिन्दू समाज ने पिछडों और दलितों को कभी अपने बराबर का मनुष्य नहीं माना. हिन्दी सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. शायद यही वजह है की पिछले साल में
300 से ज्यादा फिल्में प्रदर्शित हुई लेकिन पिछड़े व दलित तबके के नायकों की कहानी इक्कादुक्का फिल्मों में थी बाकी सारी फिल्मों के लीड किरदार सवर्णों,  कपूर,  शर्मा और चतुर्वेदी बने दिखे. किस नायक का नाम न तो पासवान था, न भागवत और न ही कुशवाहा. एक अखबार में प्रकशित रिपोर्ट के मुताबिक बीते दो वर्षों में रिलीज 400 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में मात्र 6 फिल्में थी जिसमें शीर्ष भूमिका में पिछड़े वर्ग की जाति के नायक को दखाया गया. यह भेदभाव सिर्फ परदे तक ही सीमित नहीं है. बौलीवुड में भी बिरादरी का बड़ा खेल होता है. 2013 की फिल्मों में 4 लीड अभिनेता क्रिचियन,  एक जैन,  तीन सिख, 5 मुस्लिम और बाकी 65 ऊंची जातियों से तालिक रखते थे. ये आंकडें फिल्मों में जातिगत भेदभाव को साफ़ जाहिर करते हैं. देश के अन्य संस्थानों की तरह यहाँ भी ऊंचे पदों पर उच्च जाति के लोगों का कब्ज़ा है और निम्न व पिछड़े तबके या तो फिल्म स्टूडियो में चपरासी का काम कर रहे हैं. या फिर स्टंट मैन व स्पॉटबॉय की हैसियत से आगे नहीं बढ़ पाते.

हाशिये पर जनक
1913 में जब ल्युमिअर ब्रदर्स ने बाहर से आयातित रीलें भारत में दिखाईं तो इन फिल्मों को लेकर समाज, संस्कृति के ठेकेदार बड़े खिलाफत में थी. तब सिनेमा को स्वीकारने कोई उच्च जाति का नुमाइंदा नहीं आया. इसे वेश्यागिरी करने सरीखा काम माना जाता था. ऐसे में दादा साहब फालके की हरिश्चन्द्र तारामती में तारामती के किरदार के लिए कोई उच्च जाति की अभिनेत्री नहीं मिली, ऐसे समय सिनेमा की बागडोर दलित, मुस्लिम और एंग्लो-इण्डियन परिवारों के स्त्री-पुरूष कलाकारों ने संभाली. जब इस   माध्यम को दलित, पिछड़े तबके ने अपने खूनपसीने से सींचा और इस सिनेमायी पौधे के फल देने लायक होते ही इसकी खुलाफत करने वालों को इसमें अचानक से कला संस्कृति के नज़ारे दिखने लगेनतीजतनइनकी घुसपैठ शुरू हुई. उस तबके को हाशिये पर खड़ा कर दिया जिसने इस माध्यम को खड़ा क्या था. आज कोई उस अभिनेत्री का नाम नहीं जानता जिसे मात्र डालडा के विज्ञापन में काम करने के चलते सोसायटी से यह कहकर निकाल दिया था कि यहाँ शरीफ रहते हैं. सिनेमा की इथिआस किताबें कपूर, मिर्ज़ा और मोदी खानादान की बातें करती हैं.  मानों इन्होने ही सिनेमा का आविष्कार किया हो.

कपूर
, बजाज और सिंघानिया
फिल्म बजरंगी भाईजान में सलमान के किरदार का नाम पवन चतुर्वेदी है जो एक सीन में  नायिका के गोरी होने उसके उच्च जाति से जोड़ते हुए कहता है कि गोरी है, ब्राहमण होगी. यह अकेला संवाद हिंदी फिल्मों में जातिगत भेदभाव
संभ्रांत वर्ग की दलितों और पिछड़ों प्रति नस्लीय विचारधारा को उजागर करने के लिए काफी है. अक्सर फिल्मों के नायकों की जाति हमेशा ऊंची जाति की होती है. कभी हीरो खुद को आदित्य बजाज बताता है तो कभी राहुल सिंहानिया,  कभी सचिन गुप्ता जी तो मनोहर लाला. जिनके नामों में जाति का उलेख नहीं होता उस का चरित्रचित्रण पूरा सवर्ण हिंदू मर्द जैसा ही होता है. कुछ फिल्मों में अगर कोई दलित या पिछड़ा चरित्र होगा भी तो दलित पात्र हमेशा पीड़ित ,शोषित और न्याय की गुहार के लिए दर दर भटकता दिखेगा उसका कल्याण भी किसी सवर्ण के ही हाथों होता है. शायद इसीलिए दक्षिण के एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्मकार ने अपनी फिल्म का टाइटल डोंट बी आवर फादर्स  रखा. असल में भी सवर्ण कलाकारों का ही दबदबा है. पिछड़ों के नाम पर सीमा बिस्वास, रघुवीर, राजपाल यादव,  राजकुमार यादव व कैलाश खेर जैसे नाम हैं. मुस्लिमों में भी खानों का ही दबदबा है. समकालीन हिंदी सिनेमा में किसी बड़े दलित अभिनेताअभिनेत्री का नाय याद नहीं आता.


धर्म, वर्ण और फ़िल्मशास्त्र
रामायण
,  महाभारत,  संतोषी माता और भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र समेत भस्मासुर मोहनी,  सत्यवान-सावित्री, लंका दहन, द्रौपदी वस्त्रहरण और अन्य धार्मिक ग्रंथ लंबे समय तक फिल्मों के कथानक का श्रोत रहे, जिनका मूलाधार चतुर वर्ण व्यवस्था को कायम रखना और इनका महिमा मंडन करना ही रहा है. सिनेमा के जड़ में ही धर्म, वर्ण कथानकों का प्रचार किया गया है. फिल्में चमत्कारों और अंधविश्वासों से भरी होती. दिखता जाता कि ब्राहमण और क्षत्रिय ही सबका उद्धार करेंगे. भगवान् ने इन्हें पिछड़ों और दलितों का कल्याण करने के लिए भेजा है. ऐसी फिल्में कमाई भी ख्होब करती थीं. याद होगा शोले के आसपास रिलीज फिल्म जय संतोषी माँ ने रिकोर्ड बिजनेस किया था.

अभिनेता व फिल्मों से दलितों सा व्यहार
साल 2011 में राम विलास पासवान अपने बेटे चिराग पासवान की डेब्यू फिल्म मिले न मिले हम का जोर शोर से प्रचार कर रहे थी. प्रेस बुलावे में प्रतिनिधि भी गया.जब वयः चिराग के करियर को लेकर भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा हुई तो कईयों ने दबी जबान में कहा, लिख लो हिंदी फिल्मों में दलित हीरो का चलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.
5 साल हो चुके इस बात को और चिराग के बारे में कही गयी वह बात सच निकली. गया, बिहार के महादलित दशरथ मांझी जिन्होंने सिर्फ ओने दाम पर 22 साल एक पहाड़ को तोड़कर अतरी से वजीरगंज ब्लोक का रास्ता 55  किलोमीटर से घटाकर 15  किलोमीटर कर दिया, पर निर्देशक केतन मेहता ने 4 साल पहले मांझी दा माउन्टेन फिल्म बनाई लेकिन सालों तक सीए भी किसी वितरक ने न खरीद कर इस फिल्म के साथ भी दलितों सा व्यवहार किया. कोई उच्च जाति का निर्माता भला एक महादलित नायक की फिल्म पर पैसे क्यों लहता. कैलाश खेर को कई बार ऐसे ही कड़े अनुभव हुए. राजकुमार यादव ने तो नाम बदलकर राजकुमार राव कर लिया है. फिल्मों से जुड़े एक कलाकार बताते हैं एक बार उन्हें सिर्फ दलित होने के चलते शूटिंग से किराया देकर लौटा दिया.

दलित चित्रण का सिनेमा
एक आकडे के मुताबिक सबसे ज्यादा तमिल फिल्मों में दलित और पिछड़ों नायकोण को वरीयता दी गयी. जबकि हिंदी में एक दशक के दरम्यान 750  से ज्यादा कलाकार जिन्होंने 5 से ज्यादा फिल्में कीं, उच्च हिन्दु जाति के थे. 2014 की सभी फिल्मों में मात्र
9 मुस्लिम लीड किरदार दिखे. अजय देवगन ने ओमकारा, लज्जा,  राजनीति और आक्रोश जैसे फिल्मों में पिछड़ी जाति के किरदार किये हैं. कुछ वाम विचार धारा के निर्मातानिर्देशकों और नयी सोच के लोगों ने दलित और दरकिनार विषयों को मुख्य कथानक बनाया. कुछ ऐसी ही फिल्में गौरतलब हैं.
1984 में गौतम घोष निर्देशित फिल्म पार दलित व पिछड़ों पर बनी बेहद अहम कृति है. बिहार के रूरल इलाके में बेस्ड कहानी कुछ यों है, एक शिक्षक के गांव के दलित को चुनाव में खड़ा करने की कोशिश से दलित चुनाव जीत जाता है. उत्साहित गाँव के मजदूर
,  ज़मींदार के यहाँ न्यूनतम मजदूरी पर काम करने से मना कर देते हैं. बौखलाया जमीदार स्कूल मास्टर  की हत्या करवा देता है. जवाब में विद्रोही दलित नौरंगिया साथियों के साथ  जमींदार के भाई की हत्या करता है. बदले में जमींदार पूरी दलित बस्ती में आग लगावा देता है. किसी तरह नौरंगिया और उसकी गर्भवती कलकत्ता भाग  जाते हैं. लेकिन शहर की  अनिश्चितकालीन हड़तालों और रोजगार न मिलने के चलते दोनों गाँव लौटने के लिए विवश होते हैं. किराये का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है, सुअरों के झुँड को नदी पार कराने का. इस काम में उभे रोटी रोटी तो मिल जाती है और पैसा भी, पर उसकी पत्नी के पेट में पलने वाला उसका बच्चा मर जाता है. दलित जीवन की भयानक त्रासदियों भरी यह फिल्म उच्च बनाम्म निम्न जाति के संघर्ष को बखूबी बयान करती है. 2015 की नागराज मंजुले निर्देशित मराठी फिल्म फैन्ड्री भी कुछ ऐसी ही है. एक बच्चा जो हर जगह दलितों होने के चलते सवर्णों के अत्याचार सहता है. उसे सब फैंड्री बुलाते हैं जो महाराष्ट्र के एक दलित समुदाय कैकाडी की  द्वारा बोले जाने वाली बोली का शब्द है जिसका अर्थ सूअर होता है. फ़िल्म में सूअर को छुआछूत के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है. इसी तरह 1973 की अंकुर  में सामंती मूल्यों के खिलाफ एक लड़ाई दिखी.
हिंदी फिल्मों में इस तबके की आवाज़ प्रमुखता से उठाने वाली फिल्मों में अछूत कन्या (1936) का नाम प्रमुख है. 1934 में बनी चंडीदास फिल्म में भी अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट की गयी. 1957 में अर्पण गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडालिका के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई. इसमें दलित चेतना के संकेत थी. इसी कड़ी 1959 में बनी सुजाता दलित विमर्श की बात करती है. 1975 में श्याम बेनेगल ने निशांत में जमींदारी अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को प्रतिबिम्बित किया. फिल्म में मास्टर साहब यानी गिरीश कर्नाड की पत्नी का जमीदार के बेटे अपहरण करते हैं. लाचार मास्टर गांव को संगठित कर जमींदार को धूल चटाता है. अगले साल फिल्म मंथन जो  गुजरात के नेशलन डेरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन के अध्यक्ष वी. कुरियन के सहयोग से बनी में इशारा किया गया कि कैसे जातिवाद और अस्यपृश्यता कुछ रचनात्मक करने की राह में रोड़ा बने हैं.
1980 में आई गोविन्द निहलानी की आक्रोश में आदिवासी विद्रोह की मार्मिक झलक थी. भीखू लहन्या (ओमपुरी) पत्नी की हत्या के जु़र्म में कैद है. अपने बचाव में खामोश है. एयर पाने पिता के अन्तिम संस्कार के समय जेल से निकला भीखू मौके अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि वह समाज की दरिन्दिगी का शिकार न बने. दलितआदिवासी जीवन के वीभत्स यथार्थ को परदे पर उतारती आक्रोश में सांकेतिक तौर पर नक्सलवाद की अनुगूँज है. प्रकाश झा ने जातिवादी व्यवस्था को लेकर अपनी हर फिल्म में करारा व्यंग्य किया है. उन की 1984 में आई दामुल में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में दलित कैसे पिसते है, बखूबी दिखा.
उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित फिल्म देव शिशु धार्मिक शोषण को अलहदा अंदाज में बयान किया गया. फिल्म एक ऐसे दलित मातापिता के तीन सिर वाले अजीबोगरीब बच्चे की कहानी है,  जिसे अशुभ और दैवीय आपदा बताकर एक तांत्रिक छीन लेटा है. बाद में इस बच्चे को अवतार प्रचारित कर मोटी कमाई करता है. जगमोहन मुन्द्रा की फिल्म बवंडर और बैंडिंट क्वीन में भी दलित शोषण की तसवीरें नजर आईं.
इसी तरह सुष्मन, महायात्रा, बँटवारा,  भीम गर्जना, धारावी, दीक्षा, टारगेट, समर , डा. बाबासाहेब अंबेडकर लगान, एकलव्य: द रायल गार्ड, धर्म,  चक्रव्यूह, आरक्षण,  आदमी,  अछूत, बूटपालिश और सदगति जैसी फिल्में जातिगत व्यस्था में जकड़े समाज की पीड़ा प्रदर्शित करती हैं. हालांकि सिनेमा के माध्यम से इन कथानकों को लेकर जिस तल्खी और शिद्दत से आवाज़ उठाने की दरकार है वह नहीं दिखती. लिहाजा सिनेमा में जातिवादी भेदभाव आज भी कायम है.

कब बदलेगी मानसिकता
जाति भारतीय समाज की एक कटु सच्चाई है. आजादी और संवैधानिक हक़ मिलने के बावजूद जातिप्रथा पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई. फिल्में अपने समय और समाज का आइना होती हैं. लेकिन समाज और साहित्य में जो भेदभाव दलितों के साथ होता आया है वही सिलसिला फिल्मों में क्यों जारी है, यह बात खटकती है. बहरहाल जितना दोषी शोषक होता है उतना ही शोषित भी. कई मानों में दलित व पिछड़े वर्ग खुद इस हालत के जिमीदार हैं. क्योंकि यही धर्म के नाम डर वश पंडितों से कर्मकांड करवाते हैं, उनके चरण धोकर पीते हैं, देवी देवताओं से चमत्कार की उम्मीद पालते हैं और अपनी दुर्दशा को भगवान् और नियति का फैसला मानते हैं. फिर उनका शोषण होता है तो उन्हें खुद ही आवाज़ उठानी चाहिए. अगर फिल्म बिरादरी इनके साथ जातिगत भेदभाव करती है तो तो पार, अंकुश, अंकुर, निशांत और शूद्र जेई फिल्मों के समाधान इन्हें भी अपनाने होंगे. महादलित मांझी पर आधारित फिल्म का यह संवाद समझने के लिए काफी है कि  भगवान् के भरोसे मत बैठिए, हो सकता है भगवान हमारे भरोसे बैठा हो.


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टाइटल में भी पंडित जी
फिल्म उद्योग में किस तरह जातिवादी विचारधारा घर कर बैठी है, समझने के लिए फिल्मों के नाम गौर फरमाइए जहाँ टाइटल में जातिओं का उल्लेख दीखता है.  मि.सिंह vsमिसेज मित्तल (२०१० ), मि. एंड मिसेज अइयर,  मित्तल मित्तल v/s मित्तल (२०१० ),  रोकेट सिंह सेल्स मैन ऑफ द इयर (२००९ ), सिंह इस किंग (२००८ ), मंगल पांडे (२००५ ), भाई ठाकुर (२००० ), अर्जुन पंडित (१९७६, १९९९ )क्षत्रिय (१९९३), राजपूत (१९८२) ,जस्टिस चौधरी (१९८३ ),पंडित और पठान (१९७७)


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ठाकुर की जबान

ठाकुर साहब हम गरीब हैं तो क्या हमारी भी इज्ज़त है, हम ठाकुर हैं जान दे देंगे लेकिन किसी के सामने सर नहीं झुकायेंगे, ब्राह्मण की संतान होकर तूने यह कुकर्म किया, एक सच्चा राजपूत ही ऐसा कर सकता है, जैसे संवाद और लगान फिल्म में दलित व्यक्ति का नाम कचरा रखना हिंदी फ़िल्म में उच्च वर्ण की श्रेष्ठता और दलितों व पिछड़ों को निम्न माने की मानसिकता दर्शाती है.
                           
                                                     ------- राजेश कुमार

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