Saturday, September 3, 2016

लंगोट, दंगल और भेड़चाल



सलमान खान की फिल्म सुलतान का ट्रेलर रिलीज होते ही सोशल मीडिया में लंगोट और दंगल जैसे कीवर्ड ट्रेंड कर रहे हैं. ये कीवर्ड पहले फिल्म और वर्चुअल दुनिया में इतने जोर से कभी नहीं सुने और देखे गए. बड़ी फिल्में आते ही और लगभग प्रचलन से बाहर हो चुके कीवर्ड और किरदारों को ट्रेंडिंग टोपिक बना देती हैं.
सुलतान का जबसे ट्रेलर रिलीज हुआ है डिजिटल मीडिया में इसे लाइक करने वालों की बाढ़ सी आ गयी है. यह फिल्म हरियाणा के मशहूर पहलवान सुल्तान अली खान के जीवन पर आधारित है. फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा है और इसके पटकथा लेखक और निर्देशक अली अब्बास जफर हैं. यह फिल्म इस साल ईद पर रिलीज होगी. जाहिर है आमिर की दंगल के साथ भी ऐसा होगा. यह भी इसी विषय पर केन्द्रित है.
जिस तरह देश के ज्यादातर स्पोर्ट्स चलन से बाहर हो गए हैं वैसी ही दंगल भी हरियाणा जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर और कहीं कम ही होता है. पहले गाँवोंकस्बों का हर मेला और जलसा बिना दंगल के पूरा नहीं होता. अलल अलग इलाकों से पहलवान बुलाये जाते थे और बड़ी इनामी राशि रखकर दंगल का आयोजन कई दिनों तक चलता था. यह तब की बात है जब टीवी का रोग और इंटरनेट की लत नहीं थी. अब तो दंगल का मतलब डबल्यू डबल्यू फाईट से निकाला जाता है.
बहरहाल हिंदी फिल्मों में यों तो सामाजिक सरोकार की कहानियों से जुड़े विषयों का टोटा रहता है. और दलित व पिछड़े समाज से जुडी किरदारों को तो हमेशा से ही हाशिये पर रखा गया है. दंगल और सुलतान के पहलावान या तो पिछड़े समाज से आये है या फिर दलित से, लेकिन हर साल हजारों फिल्में बौलीवुड में बनती हैं, पर इन्हें नायक की तरह कम ही पेश किया जाता है.


सामाजिक सरोकार, दलित सिनेमा 
भारत में ढेरों फिल्में बनीं पर इनमें सदियों से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था का चित्रण नहीं के बराबर हुआ है. एक अखबार में प्रकशित रिपोर्ट के मुताबिक बीते दो वर्षों में रिलीज 400 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में मात्र 6 फिल्में थी जिसमें शीर्ष भूमिका में पिछड़े वर्ग की जाति के नायक को दखाया गया. याद करें तो फिल्म लगान का कचरा याद आता है या फिर दशरथ मांझी. वर्ना ज्यादातर हिंदी फिल्मों में दलित व पिछड़ों को या तो रामू काका के घिसेपिटे किरदार में पेश किया जाता है या फिर ड्राइवर या दुकानदार. जबकि नायक कोपी सिंघानिया, मल्होत्रा या कपूर होता है. फिल्म गंगाजल में भी एक दलित को अहम् किरदार दिया गया था लेकिन फिर भी मुख्य नायक सवर्ण ही था.आज का सिनेमा समाज के उस धड़े को भूल गया है जो आज भी अमोने मेहनत और लगन से देश के आर्थिक हालातों को मजबूत का रहा है और अपनी सामाजिक जगह भी मजबूत कर रहा है.
अगर फिल्म बिरादरी इनके साथ जातिगत भेदभाव न करती तो आज दंगल औएर सुलतान के अलावा पार, अंकुश, अंकुर, निशांत और मांझी जैसा सिनेमा अधिक संख्या में बनता और इस दबेकुचले वर्ग की पीड़ा को उठाता. हालांकि इसमें भी कोई सहक नहीं है की सुलतान या दंगल इस वर्ग के हित की कोई बात करेंगे. होगा यही कि मसाला फिल्मों की तरह इस कथानाक को पेश किया जायेगा.


एक कहानी, एक फ़ॉर्मूला 
बौलीवुड में अक्सर देखा गया है कि प्रयोगधर्मी सिनेमा को कभी तरजीह नहीं दे गयी, इसकी जिम्मेदारी गिनेचुने ऑफबीट फिल्म बनाने वाले निर्देशकों पर डाल दी जाती है. और जिनके पास करोड़ों का बजट और वितरण की बड़ी मार्केट्स हैं वे भेडचाल में चलते भुए उसी फ़ॉर्मूले क दोहरा रहे हैं जो एक बार हिट हो जाता है. गार कॉमेडी फिल्म हिट हो गयी तो एक साथ ऐसी फिल्मों की लाइन लग जाएगी और अगर हॉरर चल निकली तो फिर इसी विषय पर फिल्म बनाई जायेगी. कभी कभी ऐसा भी दौर आता है जब अचानक से एक ही कहानी पर कई सारे फिल्ममेकर न सिर्फ एक साथ फिल्म बनाए लगते हैं बल्कि एक ही सप्ताह या दिन रिलीज करने पर भी अड़ जाते हैं. कहानी और विषयों को लेकर भेडचाल का चलन कुछ यों है जो विषय सालों से अनछुए रहते हैं अचानक एक ही वक़्त टपक जाते हैं. जैसा कि भगत सिंह के जीवन पर आधारित फिल्में के मामले में हुआ था. साल 2002 में इस विषय पर बौबी देओल, अजय देवगन और सोनू सूद को लेकर 3 फ़िल्में बनी और मजे की बात तो यह है की तीनों अपनी फिल्म को एक ही तारीख पर रिलीज करने के लिए अड़ गए थे. ऐसा हुआ भी. नतीजतन सारी फिल्मों पिट गईं  क्योंकि दर्शक एक ही विषय को लेकर बंट गए थे.
इस साल भी सलमान खान जहाँ अली अब्‍बास जफर निर्देशित सुल्‍तान में लंगोट बांध कर दंगल करते नजर आयेंगे तो वहीँ मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान भी फिल्म दंगल में पहलवान के किरदार में धरती पकड़ पहलवान के किरदार में नजर आएंगे. आखिरी बार किस अभिनेता ने पहलवान का किरदार किया था. आप को याद नहीं आयेगा. क्योंकि यह विषय कभी भेड़चाल का हिसा नहीं बना पर अब लगता है बन जायेगा.


चोरी वाली भेड़चाल 

सेम कहानियों की भेडचाल से इतर हैं चोरी वाली भेडचाल. इसमें निर्माता निर्देशक थोक के भाव विदेशी फिल्मों की डीवीडी खरीदत है और अपने लेखक से उसका हूबहू भारतीय संस्करण बनवा लेते हैं. इस कला में ससे ज्यादा माहिर भट्ट ब्रदर्स (महेश और मुकेश भट्ट) रहे हैं. उनके बैनर की 90 प्रतिशत फिल्में हॉलीवुड फिल्मों से उड़ाई गयी है. भट्ट कैम्प की कामयाबी की देखादेख 90 के दशक इस भेडचाल में सब निर्माता निर्देशकों ने हाथ आजमाए. हालांकि अब परिदृश्य बदल चुका है. अब अंग्रेजी फिल्मों की स्टोरी चुराना कम और जोखिम बहार काम है. हालीवुड की फिल्मों के रीमेक के अधिकार खरीदने के लिए बडी राशि चुकानी पड़ती है. इसके आलावा हॉलीवुड के ज्यादातर प्रोडक्शन हॉउस जैसे फॉक्स फिल्म्स, सोनी पिक्चर, लाइंस गेट और वायकोम 18 के दफ्तर मुंबई में खुल चुके हैं. जाहिर है इनके नाक के नीचे से इनकी फिल्में चुराना आसान नहीं है. सोहेल खान ने अंग्रेज़ी फिल्म हिच की कॉपी कर डेविड धवन से जब पार्टनर बनवाई थी तो मूल फिल्म के निर्माता सोनी पिक्चर ने सोहेल पर धावा बोल दिया था. मामला किसी तरह कोर्ट के बाहर मोटी रकम देकर सुलझाया गया.


साउथ का मसाला डोसा 
हॉलीवुड फिल्मों की चोरी जब पकड़ने लगी तो भेडचाल का रुख दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरफ मुड़ गया. यहाँ जो फिल्में क्षेत्रीय स्टार पर ज्यादा कामयाब होने लगी उनके राइट्स सस्ते में खरीद कर मुंबई के निर्माताओं ने खूब कमाया. यह भेडचाल आज भी जारी है. साल भर में रिलीज हिट चंद अच्छी हिन्दी फिल्में ज्यादातर साऊथ इंडियन फिल्मों की रीमेक थीं. किसी साउथ की फिल्म के डायरेक्टर को हिन्दी रीमेक के लिए लाकर ये काम आसान बना लेते हैं. दरअसल एक सफल फिल्म के रीमेक करना बिजनेस के हिसाब से आसान और सफल प्रयोग होता है. सलमान. अक्षय कुमार से लेकर आमिर खान तक रीमेक फिल्मों से 100 करोड़ क्लब में शामिल हुए हैं. दृश्यम, ट्रैफिक, गजनी, गोलमाल, बॉडीगार्ड,  रेडी,  सिंघम, हाऊसफुल 2, राऊडी राठौर, मैं तेरा हीरो, बागी  और सन ऑफ सरदार  जैसी सफलतम फिल्में दक्षिण भारतीय फिल्मों की रीमेक हैं. इनकी जगह अगर समाज के उस धड़े और तबके के विषयों पर ज्यादा फिल्में बनें तो मनोरंजन जगत की सार्थकता समझ आये,  



पुलिस पब्लिक और अंडरवरवर्ल्ड 
एक और भेडचाल ऐसी है जो किसी ख़ास किरदार या थीम के हिट होते ही निर्माता निर्देशक उसी फ़ॉर्मूले को इतना घिसते हैं कि पब्लिक उकता ही जाये. बीते 4-5 सालों में पुलिस सिस्टम और दबंग किरदारों पर फिल्में बनाने का चलन कुछ यों शुरू हुआ की सिंगम, दबंग से लेकर राऊडी राठोर और पुलिसगिरी तक न जाने कितनी फिल्में बनीं, इनके सीक्वल भी बने. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक तक यह सब्जेक्ट पब्लिक ने नकार नहीं दिया. पुलिस का अपराध से चोली दामन का साथ है लिहाजा राम गोपाल वर्मा सरीखे निर्देशकों ने सत्य, कम्पनी, डी जैसी सफल फिल्मों के केंद्र में उन कुख्यात अपराधियों को रखा जो एक समय अंडरवरवर्ल्ड के सरगना थे. ऐसी फिल्में पसंद भी की गई बाद में जब यह विषय भी भेडचाल का सहकार हुआ तो इसी विषय पर बनी डिपार्टमेंट और सत्या 2 जैसी कई फिल्में औंधी मुंह गिरी.


अकर्मण्यता और अंधविश्वास का महिमामंडन 
इसी तरह एतिहासिक फिल्मों का दौर चला था, तब जोधा कबर से लेकर बाजीराव तक चला और हास्य और मसाला फिल्मों की घिसाई तो सालों से हो रही है और जिस तरह आज दंगल और लंगोट के चर्चे है. आगे चलकर कोई और नया विषय ट्रेंड में आयेगा और उस पर भी भेड़चाल होने लगेगी. लेकिन जिस तरह फिल्मों के हर दुसरे सीन में देवी देवताओं की पूजा, घन्टी बजाते ही आँखे आ जाने जैसी चमत्कार और तमाम अंधविश्वासी दृश्य रचकर आमजन को गुमराह किया जाता है. इसी तरह रागिनी एमएमएस और तमाम भूटिया फाइलों में हनुमान चालीसा का पाठ हो या क्राइस्ट सिम्बल का प्रयोग, समाज को अंधविश्वास की गहरे गर्त में ले जाता है. 
इसके अलावा अपराधियों, चोर और गैंगबाजी वाली फिल्मों में जाहिर किया जाता है कि बड़ा आदमी बनने के लिए मेहनत की नयी शोर्कत की जरूरत है. बैंक लूट लो, हफ्ता वसूलो, गुंडी बन जाओ या फिर लौटरी लगेगी या फिर भगवान चमत्कार कर देगा, काम को प्रधान नहीं दिखाया जाता. इस से समाज में अकर्मण्यता को बढ़ावा मिलता है. फिल्मों के दृश्यों से इंस्पायर होकर रोबरी की असल वारदाते या फिर मर्डर के अपराध अंजाम दिए जाते हैं.
समय आ गया कि फिल्मकार और कलाकार अपने सामाजिक सरोकार समझें और सिर्फ नाचगाने की फूहड़ सिनेमा से परे कुछ समाज के बाहर और कुछ परदे के अन्दर करने की जहमत करें. 

                                           --RAJESH S. KUMAR

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