Wednesday, November 3, 2010

सेंसर का दोहरा मापदंड




गांधी जी ने एक बार सेंसरशिप को अपने अंदाज़ में परिभाषित करते हुए कहा था, इफ यू डोंट लाइक समथिंग, क्लोज़ योर आइज़. साउथ फिल्मों का सेंसर बोर्ड इस फलसफे के दोनों पहलुओं का इस्तेमाल करता है. अपने मुताबिक़ आंखें खोलता और बंद करता है. शायद इसीलिए इसे आए दिन क़ानूनी तमाचे पड़ते रहते हैं. ताज़े मामले में पांच साल की लंबी लड़ाई के बाद काधल आरंगम को प्रदर्शन की अनुमति मिल ही गई. इस फैसले ने एक बार फिर से सेंसर बनाम निर्माता-निर्देशक विवाद को हवा दे दी है. वर्ष 2004 में पूरी हो चुकी वेलू प्रभाकरण निर्देशित फिल्म काधल आरंगम को तमिल सिनेमा की सबसे सेक्सी फिल्म का दर्जा दिया गया है. चेन्नई सेंसर बोर्ड ने फिल्म को न्यूड सीन्स और ओपन सेक्स को बढ़ावा देने वाले कंटेंट के चलते अस्वीकार कर दिया था. इसके बाद वेलू ने दिल्ली ट्रिब्यूनल को फिल्म दिखाई. शोभा दीक्षित की अध्यक्षता में फिल्म देखी गई, लेकिन नतीजा फिर वही रहा. इस तरह कई कमेटियों के चक्कर काटने के बाद फिल्म प्रदर्शन के लिए तैयार हो पाई है.

यह बुनियादी तथ्य सेंसर की समझ से बाहर है कि सवा अरब की आबादी वाले इस देश में स़िर्फ 15,000 थिएटर हैं, जबकि इंटरनेट एवं टेलीविजन चैनलों की पहुंच की कोई सीमा नहीं है. वहां रात होते ही सेक्स एवं हिंसा का कॉकटेल शुरू हो जाता है. ऐसे में बोर्ड को इतना तो समझ में आता ही होगा कि जनता एकबारगी टिकट लेकर सिनेमाघर ज़्यादा जाती होगी या घर में बैठकर टीवी एवं इंटरनेट पर समय गुज़ारती होगी.

हम साउथ सिनेमा में सेंसरशिप की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि भारत में अश्लील फिल्मों का सबसे बड़ा बाज़ार यही है. पोर्न वेबसाइट पर अगर इंडियन पोर्न कंटेंट होता है तो वह यहीं का होता है. यहां की संस्कृति और फिल्मों में उत्तेजकता हमेशा से ही हावी रही है. मल्लू शब्द भी यहीं की उत्पत्ति है. एक आंकड़े के मुताबिक़, यहां रोज़ लगभग 50 एडल्ट फिल्में बनती हैं और उनकी शूटिंग खुले बीच एवं फॉर्म हाउसों में होती है. कई अभिनेत्रियां किसी पेपेराज़्ज़ी, सेक्स स्कैंडल और एमएमएस कांड में लिप्त मिलती हैं. अभिनेत्री खुशबू तो अक्सर अपने बेबाक बयानों के चलते विवादित रहती हैं. यहां सेक्स और हिंसा के बिना फिल्म बनाना नामुमकिन है. (हालांकि कुछ फिल्म निर्माता इसके अपवाद भी हैं) ऐसी जगह सेंसरशिप क्या इतनी आसान है कि कुछ फिल्मों के चंद दृश्य काटने से उसकी ड्यूटी पूरी हो जाए. कुछ मामलों का ज़िक्र करते हैं, जहां सेंसर अपनी कैंची की धार दिखा रहा था. राम गोपाल वर्मा के सहायक रह चुके समीर की फिल्म दोगम नादांथाथू को बेडरूम और चुंबन दृश्यों के चलते ए सर्टिफिकेट दिया गया. कावेरी नदी जल विवाद पर बनी फिल्म थाम्बीवुड्‌यन को चेन्नई सेंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया. इसी तर्ज पर मद्रास हाईकोर्ट ने कमल हासन की फिल्म दशावतारम में कुछ विवादित धार्मिक प्रसंगों के चलते आपत्ति जताई थी. कमल की कामेडी फिल्म मुंबई एक्सप्रेस को एक गाने के चलते ए सर्टिफिकेट देने की कोशिश की गई. जहां का सिनेमाई मिज़ाज़ ही ऐसा है और सिनेमा को टीवी, इंटरनेट एवं पायरेसी से भी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है, वहां चंद फिल्में सेंसर करने से क्या फर्क़ पड़ता है. अगर सचमुच बोर्ड एवं सरकार की मंशा यह है कि समाज से हिंसा और अश्लीलता को कम किया जाए तो वे फिल्मों के बजाय उन सभी माध्यमों को बैन करें, जिन पर हिंसा और अश्लीलता का प्रदर्शन होता है और उसे बढ़ावा मिलता है. यह बुनियादी तथ्य सेंसर की समझ से बाहर है कि सवा अरब की आबादी वाले इस देश में स़िर्फ 15,000 थिएटर हैं, जबकि इंटरनेट एवं टेलीविजन चैनलों की पहुंच की कोई सीमा नहीं है. वहां रात होते ही सेक्स एवं हिंसा का कॉकटेल शुरू हो जाता है. ऐसे में बोर्ड को इतना तो समझ में आता ही होगा कि जनता एकबारगी टिकट लेकर सिनेमाघर ज़्यादा जाती होगी या घर में बैठकर टीवी एवं इंटरनेट पर समय गुज़ारती होगी. इस बात पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है कि यह हिंदी सिनेमा नहीं है, जहां थोड़ी सी अश्लीलता और धार्मिक विवाद आग लगा देते हैं. कई बुनियादी मसले हैं, जिनके साथ सेंसर बोर्ड अपना तारतम्य नहीं बैठा पाता. काधल आरंगम का किस्सा भले ही फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की जीत हो, पर इस सब के बीच दर्शकों की सुध किसी को नहीं है, जिनके लिए यह सारा तामझाम बनाया जाता है. समाज बोल्ड हो चुका है. जितनी तेज़ी से समाज की सोच का दायरा बढ़ा है, सेंसर उतनी ही तेज़ी से संकीर्ण हुआ है. अब रामायण की जगह रियल्टी शो और कायमचूर्ण एवं दंत मंजन के विज्ञापनों की जगह एक्स एवं एडिक्शन डियोड्रेंट के अश्लील विज्ञापन चल रहे हैं. बोर्ड एवं सरकार को विजय आनंद से सबक लेने की ज़रूरत है, जो बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं. उन्होंने कहा था कि पोर्न फिल्में लगभग हर जगह खुलेआम बिक रही हैं और देखी जा रही हैं. इनसे लड़ने का यही तरीका है कि बोर्ड इस तरह की फिल्मों को क़ानूनी मान्यता देकर सिनेमाहाल में दिखाए. अगर किसी समस्या को जड़ से खत्म नहीं कर सकते तो उसे ग़ैरक़ानूनी तरीके से होने से रोक तो सकते हैं. साउथ सिनेमा का अपना मिज़ाज़ और चटकीला रंग है. इसलिए हिंदी सिनेमा की तर्ज पर सेंसरसिप नहीं चल सकती. यहां की संस्कृति, दर्शकों की मानसिकता और इंटरटेनमेंट वैल्यू को समझना बहुत ज़रूरी है. इसके आधार पर ही मापदंडों को बदला जाए. तब जाकर सेंसरशिप के सही मायने निकल कर सामने आएंगे. वरना वेलू जैसे जागरूक निर्देशक क़ानूनी चुनौतियां देते रहेंगे और सेंसर बोर्ड अपनी

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