विशेष इन्टरव्यू-
संगीत और
परिवार दोनों साथ हैं - रश्मि अग्रवाल
रश्मि अग्रवाल किसी संगीत घराने
से ताल्लुक नहीं रखतीं लेकिन शास्त्रीय संगीत उनकी रगरग में बसता है. अपनी दिलकश
आवाज से क्लासिकल, ठुमरी, दादरा और गज़ल गाने वाली रश्मि संगीत की इस यात्रा
में परिवार के सुर कभी बेसुरे नहीं होने देतीं. राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर
अपनी विविध आवाज से जादू जगाने वाली रश्मि ने पिछले दिनों यूनेस्को द्वारा संचालित
उजबेकिस्तान में शार्क तरुणअलारी ग्रैंड प्रिक्स प्रतियोगिता जीती है. वह इस
प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली महिला हैं. गायन में हरफनमौला और संगीत के ऐसे ही
कई सफल मुकाम हासिल कर चुकी शास्त्रीय संगीत कलाकार रश्मि अग्रवाल से राजेश कुमार की बातचीत हुई.
पेश है मुख्य अंश.
|
Rashmi agarwal |
संगीत से पहला वास्ता कब पड़ा, कब एहसास हुआ कि इसी क्षेत्र में जाना है ?
संगीत से वास्ता तो बचपन से ही था. घर पर रेडियो बड़े
ध्यान से सुनते थे. उस वक्त गाने की कैसेट और रिकोर्ड होते नहीं थे. हम इंतज़ार
करते थे कागज कलम लेकर कि फलां गाना रेडियो पर आयेगा तो उसे नोट कर लेंगे और बाद
में उसे सीखेंगे. फिर कैसेट वगैरह आये और हम सीखते रहे. लेकिन बड़ा मोड आया
इंटरमीडिएट के दौरान. उस दौरान हमारी एक टीचर ने मुझे गाते हुए सुना और मुझे संगीत
को बतौर सब्जेक्ट लेने के लिए कहा. मैं तो संगीत का सारे गा मा भी नहीं जानते थी, लेकिन वे मुझे संगीत शिक्षक कमला बोस के पास ले गयीं. वही
मेरी पहली गुरु हैं. उन्हें मैंने कुछ गाकर सुनाया. उन्हें मेरा गाना पसंद आया. इस तरह से संगीत की विधिवत ट्रेनिंग शुरू हुई.
क्या ऐसा संभव है कि सिर्फ आवाज़
अच्छी हो और बिना किसी ट्रेनिंग या गुरु के कोई सिंगर बन जाए ?
आवाज़ तो बहुत लोगों की अच्छी होती है लेकिन समझने
वाली बात यह है कि आवाज़ के साथसाथ गले में सुर भी हों. हालांकि आजकल बहुत से बच्चे
ऐसे भी हैं जो इसी तरह सुनसुन कर सीखते हैं और प्रोफेशनली गाने लगते हैं. लेकिन यह
बहुत दिन नहीं चलता. थोड़े दिनों के लिए आपने कोई गाना सुना, उसे कॉपी कर परफोर्म कार दिया,
लेकिन बिना संगीत
के गहरी समझ के आप ज्यादा समय तक सर्वाइव नहीं कर सकते.
शादी के बाद प्राथमिकताओं में
बदलाव आये ? कभी संगीत के चलते
परिवार या रिश्तों में मनमुटाव या कड़वाहट नहीं आई ?
परिवार का हमेशा साथ मिला. शादी के बाद जरूर
पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते गैप आया
लेकिन मैंने परिवार को प्राथमिकता दी. उसके बाद अगर दिन में एक घंटा भी
मिला तो रियाज किया. इस तरह अपनी संगीत साधना के साथ परिवार कभी पीछे नहीं छोड़ा.
पति हमेशा हौसलाफजाई करते रहे. और रही बार
कड़वाहट की तो संगीत इतनी मीठी चीज है कि इसकी वजह से रिश्तों में खटास का सवाल ही
नहीं. कभी ऐसा मौका आने ही नहीं दिया कि पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराकर
संगीत को तवज्जो दूं. नए परिवेश में सामंजस्य बिठाने में थोडा समय जरूर लगा लेकिन
संगीत और परिवार हमेशा साथसाथ रहा.
जब संगीत कार्यक्रम के सिलसिले
में विदेश जाना होता है, परिवार साथ रहता है या अकेले जाती हैं ?
वैसे अक्सर मेरे पति मेरे साथ बाहर जाते हैं. अगर
उनके पास समय नहीं तो बच्चे भी साथ चलते हैं.
पति या बच्चे सिर्फ रिश्ते के नाते
जाते हैं या इन्हें भी संगीत से लगाव भी है ?
मेरे परिवार में अब सब कानसेन बन गए हैं. अच्छा और
बुरा संगीत समझते हैं. मेरा गाना उन्हें
पसंद है इस लिहाज से वे साथचलते हैं. मेरी
बेटी तो संगीत में काफी रूचि ले रही है,
हालांकि
उसका रुझान क्लासिकल के बजाये वेस्टर्न की तरफ है लेकिन उसके गले में सुर बहुत
अच्छा है.
एक बार जगजीत सिंह ने एक श्रोता
के सवाल पर उसे डांटते हुए कहा था कि पहले गीत और गज़ल में फर्क समझों फिर सवाल करो? आप से भी कार्यकर्म के दौरान ऐसे इमेच्योर सवाल पूछे जाते
है ?
कई बार हमसे भी इसी तरह के अपरिपक्व व बेतुके सवाल
पूछे जाते हैं. लेकिन अगर हम ही उनका जवाब नहीं देंगे, उनकी जिज्ञासा या उत्सुकता शांत
नहीं करेंगे तो वे समझेंगे कैसे.
तो यह कहना सही होगा कि ज्यादातर
लोग क्लासिकल संगीत नहीं समझते ?
हां, काफी हद इस बात की तस्दीक करती हूं. मुझे लगता हैं कि स्कूल
कोलेज में हमें संगीत या आर्ट को कम्पलसरी सब्जेक्ट बना चाहिए. इससे सब संगीतकार या गायक भले ही न बन पाएं लेकिन
सुनकार यानी समझदार श्रोता तो बन ही जायेंगे. उनकी संगीत को लेकर समझ तो विकसित
होगी ही.
क्लासिकल संगीत भारत में आम
लोगों में कम लोकप्रिय क्यों है? आपने कभी बौलीवुड का रुख
करने का नहीं सोचा ?
जो आपकी शिक्षा होती है, आप उसी को लेकर आगे बढ़ते हैं.
मैं क्लासिकल को लेकर चली, उस में मास्टर डिग्री ली सो उसी साधना को आगे बढ़ाया. लेकिन
शादी के बाद मैंने जरूर ठुमरी और दादर सीखा. समय के साथ बदलना जरूरी है. लिहाजा
ठुमरी दादर पर काम करने के बाद मेरा रुझान सूफी की तरफ गया, मैंने सूफी संतों के साहित्य का गहराई से अध्ययन किया. सूफी
ऐसे विधा है जो दिल को छू जाती है. इस तरह संगीत की यात्रा के कई पड़ाव जीवन में
आये और आगे भी आएंगे.
आजकल यूथ के आईपोड और स्मार्टफोन
में वेस्टर्न और बौलीवुड गाने भरे हैं,
आपकी
बेटी भी क्लासिकल के बजाये वेस्टर्न का रुझान रखती है. यूथ और आम लोग क्लासिकल से
इतना दूर क्यों हैं ?
ये तो पसंद की बात है, जिसे जो अच्छा लगता है सुनता है.
लोग क्लासिकल भी सुनते हैं. मेरी बेटी को भी क्लासिकल सुनना पसंद है. अब देखिये
क्लासिकल है ही एक खास क्लास के लिए. इसे मास में कैसे सुना जा सकता है. जिन्हें
क्लासिकल पसंद आता है वे चलताऊ संगीत नहीं सुनते. रही बात यूथ की तो जितनी भी यूनीवर्सटी हैं वहां तो यूथ ही
क्लासिकल सीख रहे हैं. बिना क्लासिकल के बेस ही नई बनता.
कौन सा गीत है जो मंच पर ज्यादा
फरमाइश मे आता है?
मेरे एल्बम के गीत रंग दे मौला की काफी डिमांड आती
है. राँझा राँझा भी बिना सुने कोई छोड़ता. लेकिन दमादम मस्त कलंदर गाये बिना कोई
शोए एंड नहीं होता.
अभी आपने एल्बम का जिक्र किया तो
याद आया कि पिछले दिनों अभय दियोल और सोनू निगम समेत कई लोगों ने टी सीरीज के
कोंट्रेक्ट को लेकर सामूहिक विरोध किया था. आपके
भी एल्बम निकले हैं, क्या वाकई संगीत कम्पनियां सिंगर्स के साथ कोंट्रेक्ट की आड़
में ज्यादिती करती हैं ?
असल में संगीत कंपनियां सिंगर के साथ ऐसा अनुबंध
तैयार करती हैं जो पूरी तरह से उनके फेवर में होता है. जब हम उनके साथ इस करार में
बंध जाते हैं तो हमारा हमारी ही रचना पर कोई अधिकार नहीं रहता. सारा कोपीराइट उनका
हो जाता है. एक बार एक बड़ी फिल्मकार ने राँझा राँझा गीत को अपनी फिल्म में इस्तेमाल करने के लिए हमसे इज़ाज़त
माँगी. लेकिन उस करार के चलते ऐसा नहीं कर पाए.
फिल्मों में सूफी गीतों का चलन
बढ़ा है, कई फिल्मकार साधारण गीतों को
सूफी बताकर बेच रहे हैं. असल में सूफी गीत क्या हैं ?
सूफी के बारे सबसे पहले समझा जरूरी है कि संगीत फी
नहीं होत्ता. इसका जो कविता पक्ष है यानी लिरिक्स है वो सूफी होते हैं. संतों ने
जो लिखा है उसे अपने अलगअलग संगीत माध्यमों से लोगों तक पहुचाना ही सूफीयाना है.
जैसे रब्बी शेरगिल रौक संगीत के जरिये बुल्ले शाह गाते हैं. कोई कबीर गाता है. नुसरत फ़तेह अली खान कव्वाली में सूफी गाते
थे. मैं ठुमरी और अपने प्रयोग के साथ नए अंदाज में सूफी गाती हूँ. अगर आप कोई
सूफियाना कलाम गा रहे हैं वो सुनने वालों के दिल तक पहुंच गया तो समझ लीजिए आपका
उद्देश्य पूरा हो गया.
कार्यक्रम के दौरान फ़िल्मी
हस्तियों से मुलाकात होती है, कभी फिल्म में गाने का ऑफर नहीं मिलता?
जब शो खत्म होता है तो बहुत सारे लोग तारीफ़ में
कसीदे पढते है और भविष्य में कुछ काम करने के वादा करते हैं लेकिन लेकिन बाद में
कुछ नहीं होता.
इसकी वजह बम्बई के बजाय देल्ही
में रहना तो नहीं?
ऐसा नहीं है. आजकल दूरी का मसला ही कहाँ रह गया है.
आप सुबह बम्बई से काम करके रात को देल्ही वापस आ सकते हैं. आजकल तो इन्टरनेट के
जरिये लोग संगीत बनाते हैं, गाते हैं और फिर
वो कहीं और रिकोर्ड होता है, मास्टर होता है और मिक्सिंग होती है.
गाने के अलावा आप गीत भी लिखती
हैं?
मैं गीत भी लिखती हूं और अपने एल्बम के सभी गीत
संगीतबद्ध भी करती हूं. पहले मैंने ऊषा उथुप के लिए लिखा है. उनकी एल्बम शायरारी
के टाइटल ट्रैक के अलावा चार गीत लिखे थे.
जवाहर बट्टल के साथ जुडी थी. अब अपने लिए गाने लिखती हूं. पंजाबी से पोइटिक
ट्रांसलेशन भी करती हूं. बुल्ले शाह, रूमी,
राबिया
वगैरह का अनुवाद किया है.
फिलहाल संगीत को लेकर क्या
योजनायें हैं?
इन दिनों एक सूफी एल्बम पर काम कार रही हूं.
जल्दी ही आपके सामने आएगा. इसके अलावा सूफी साहित्य पर अध्यन तो जारी है.
बाकी समय परिवार के खुशनुमा लम्हे भी तो बिताने होते हैं.
----- राजेश कुमार