शिक्षा में घुसपैठ करता
तर्क और
अन्वेषण से परे धर्म
-- राजेश कुमार
मशहूर जर्मन विचारक इमैनुअल
कांट जो क़ानून, विज्ञान,
धर्म और इतिहास
जैसे तमाम महत्वपूर्ण विषयों पर प्रभावी लेखन के लिए जाने जाते हैं, के मुताबिक़, हमारा पूरा ज्ञान हमारी इंद्रियों से शुरू
होता है, फिर समझ की तरफ बढ़ता है और तर्कों
पर आकर खत्म हो जाता है. जाहिर है, तर्कों से
बड़ा कुछ भी नहीं. इसमें कोई
शक नहीं कि तर्क और अन्वेषण के आधार पर गढ़ी गई शिक्षा व्यवस्था ही किसी देश का
मुस्तकबिल तय करती है. अगर हम अपनी शिक्षा तंत्र से तर्क और अन्वेषण जैसे अहम पहलू
दरकिनार कर दें तो फिर यह किसी मदारी द्वारा बन्दर को सिखाई जाने वाली फर्जी
उठापटक या किसी तोते को रटाये जाने वाले भजनों से ज्यादा कुछ नहीं रहेगी. ऐसी
शिक्षा न तो किसी आविष्कार की संभावना पैदा होने देगी, न समाज को जागरूक कर
पायेगी.
चिंता की बात है कि हमारे देश
की शिक्षा प्रणाली में धीरेधीरे धर्म की घुसपैठ होती जा रही है. और धर्म भी कैसा
जिसमें न तो किसी तर्क की गुंजाइश है और न ही किसी तरह के अन्वेषण की. तर्क यानी
किसी भी प्रथा, प्रचलन, विचार, कथा,
ऐतिहासिक तथ्य और समाजिक राजनितिक और धार्मिक मान्यता के पीछे के आवश्यक कारण,
जिनसे उनकी विश्वसनीयता सिद्ध होती है. उनके अस्तित्व को लेकर प्रमाणिकता का भान
होता है और सबसे बड़ी बात यह कि वे वैचारिक और सैद्धांतिक तौर पर समाज और व्यक्ति के
लिए उचित हैं भी या नहीं.
और अन्वेषण यानी ऐसी अज्ञात
अथवा दूर की बातों, वस्तुओं, विचार, मान्यताओं, स्थानों आदि का पता लगाना जो अब तक
सामने न आई हों. एक तरह से रिसर्च या अनुसंधान करना. हमें सोचसमझने, तर्क और
अन्वेषण की क्षमता इसलिए मिली है कि हम हर बात पर आँख मूंदकर विशवास करने के बजाये
उसके पीछे के सच को समझे. ईसिस प्रक्रिया के तहत हम आज तक आविष्कार. शोध के
क्षेत्र में ऐसा काम कर पाएं है जो असंभव लगते हैं. लेकिन जब बात धर्म की आती है
तो पता नहीं क्यों तर्क और अन्वेषण को ख़ारिज कर दिया जाता है. अगर कोई सालों
पुराणी परम्परा से होने वाली नुक्सान पर अन्वेषण की बात करे तो धर्म के ठेकेदार
उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं. धार्मिक संस्कार और पूजा पाठ नाम लोगों को ठगा जाता है, पाप पुण्य के नाम पर बरगलाया जाता
है, ईश्वर, वरदान के नाम पर कर्मण्य और अन्धविश्वासी बनाया जाता है. और जब कोई
अपने तर्क और अन्वेषण के दम पर इन पर सवाल खड़े करता है तो उसे नास्तिक बताकर
धर्मद्रोही साबित कर दिया जाता है.
बस जैसा कहा या सुनाया जाए
उस पर आँख मूँद कर भरोसा करने की शिक्षा देने वाला धर्म आखिर छात्रों को किस तरह
का भविष्य दे सकता है? हजारों सालों से जिस हिन्दू व्यवस्था के हंटर की मार नारी,
दलित और पिछड़े झेलते आयें हैं उसी का गुणगान स्कूली किताबों में करने का आखिर और
क्या मकसद हो सकता है सिवाए इसके कि कुछ धर्म के ठेकेदार व पुरातन पंथी फिर से
स्कूलों के माध्यम से आने वाली पीढी के जीन में फिर से वही सड़ीगली धर्म व्यवस्था का
कैकैंसर फैलाने पर आमादा हैं.
बीते कुछ समय से लगातार स्कूलों में धर्म आधारित शिक्षा की पैरोकारी की खबीरें
सुनने में आती रहीं है. कुछ मामले गौरतलब हैं;
·
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का बयान
आया कि राज्य सरकार इसी साल नए शैक्षिक सत्र से स्कूली पाठ्यक्रम में भगवद् गीता शामिल
कराएगी.
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मुंबई
से खबर आई कि छात्रों का ज्ञान बढ़ाने
के लिए शहर और उपनगर में निगम के सभी स्कूलों में भगवद्गीता पढ़ाई जाएगी..
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दिल्ली के नामी स्कूल रायन इंटरनेशनल ने नियम निकाला कि स्कूल के
शिक्षकों और छात्रों को भाजपा की सदस्यता लेनी होगी. हालनी इसे ऐच्छिक बता जा रहा
है.
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भाजपा की सरकार में कर्नाटक के तत्कालीन शिक्षामंत्री ने भी सर्कुलर
जारी किया था कि स्कूलों में छात्रों को प्रतिदिन 1 घंटा गीता अवश्य पढ़ाई जाए.
यदि कोई इस ग्रंथ के पढ़ाने का विरोध करता है और इस का आदर नहीं करता तो उस के लिए
देश में कोई जगह नहीं है.
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1 अगस्त 2013 को शिवराज सिंह सरकार ने मध्य प्रदेश राजपत्र में
अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था. .
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राज्य सरकार ने 2011 में गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने
की घोषणा की थी.
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वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की
पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया
था.
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मध्य प्रदेश राज्य शिक्षा
मंत्री अर्चना चिटनिस द्वारा राज्य के सभी सरकारी स्कूलों को दिया गया यह आदेश भी
काफी विवादित रहा था कि स्कूलों में मिड डे मील के पहले सभी बच्चे भोजन मंत्र
पढ़ेंगे.
ये तो
महज नाम मात्र के उदहारण है जबकि सच तो यह है इसी तरह धर्म के नाम पर शिक्षा का पाखण्ड
देश के दूरदराज के गाँवों में आम है. जैसे सरस्वती शिशु मंदिर टाइप के धर्मपोषित
संस्थाओं में तो हिन्दू धर्म की पूरी की पूरी घुट्टी ही पिला दी जाती है.
प्रार्थना के नाम पर भगवान् का गुणगान, जिसमें सब कुछ भगवान् की मर्जी से ही होता है, गणित, विज्ञान और तर्क के दम पर नहीं,
का सन्देश छिपा होता है. संस्कृत के नाम पर ऐसे श्लोकों को रटाया जाता है जो
ब्राहम्ण वादी व्यवस्था के तहत वर्गभेद की वकालत करते नजर आते हैं. इसी तरह मध्य प्रदेश
सरकार का शासकीय स्कूलों में योग के नाम पर सूर्य नमस्कार अनिवार्य कर देना बेहद अवैज्ञानिक तो था ही साथ में इसी से अल्पसंख्यक
छात्रछात्राओं का स्वयं को अलगथलग महसूस करना स्वाभाविक था. इतना ही नहीं इसी
प्रदेश में एक बार राज्य सरकार की ओर से जारी की गयी विज्ञप्ति में कहा गया था कि
मध्य प्रदेश की स्कूली पुस्तकों को समावेशी बनाने की दृष्टि से गीता के अलावा अनेक
धर्मों, संप्रदायों के विषय भी
छात्रों के ज्ञानवर्धन के लिए पाठ्यपुस्तकों में शामिल किए गए हैं. इनमें पैगंबर
हजरत मोहम्मद की जीवनी, वाकया ए करबला, गुरूनानक देव, गौतम
बुद्ध, महावीर स्वामी, क्राइस्ट, गरीब नवाज ऑफ अजमेर पर
प्रोजेक्ट कार्य दिए गए हैं. अब इन प्रोजेक्ट की आड़ में इन तमाम धर्मिक मसीहाओं और
चमत्कारी तथाकथित महापुरुषों का गुणगान ही तो करवाया जाएगा..
सिर्फ सरकारी
या हिन्दू बाहुल्य छात्रों के स्कूलों का ही नहीं मदरसों का भी बुरा हाल है. यहाँ
भी धरम जनित शिक्षा के सहारे छात्रों को चमत्कार, जन्नत और दोजख का पाठ पढाया जाता है. मंदसौर
में निदा महिला मंडल 128 मदरसों को संचालित करता है. गुरुकुल विद्यापीठ, नाकोडा, ज्ञान सागर, संत रविदास, एंजिल और जैन वर्धमान
सरीखे नाम वाले 128 मदरसों में से 78 मदरसों में मुस्लिम छात्रों के साथ हिंदू
बच्चे भी पढ़ते हैं. हिंदू बच्चों की संख्या देखते हुए यहाँ नेमीचंद राठौर की हिंदू
धर्म सोलह संस्कार, नित्यकर्म एवं मान्यताओं
का वैज्ञानिक आधार शीर्षक से किताब पढाई
जाती है. इस किताब में नित्यकर्म, दंतधावन
विधि, क्षौर कर्म, स्नान, वस्त्रर धारण विधि, आसन, तिलक धारण प्रकार, हाथों में तीर्थ, जप विधि, प्राणायाम, नित्य दान, मानस पूजा, भोजन विधि, धार्मिक दृष्टि में अंकों का महत्व और नवकार मंत्र को भी शामिल
किया गया है.
कितनी
हास्यास्पद बात है कि जो तिलक, तीर्थ और मंत्रो के नाम पर ब्राह्मण सदियों से
बड़ेछोटे का भेद पैदा कर मन्त्रों के नाम पर दान दक्षिणा का व्यापार करते आये हैं,
आज उन्ही पुराणी कुरीतियों को फर्जी वैज्ञानिक जामा पहनकर बच्चों को बरगलाया जा
रहा है. कई शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में कई अंश ऐसे हैं जो छात्रों
के मन में न केवल अंधविश्वास की नींव डाल रही हैं बल्कि साम्प्रदायिक भेदभाव पैदा करती बातें भी सिखा रहे हैं. स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों की पुस्तकों का बड़ा महत्त्व होता है. इस
दौरान जो पढ़ाया जाता है उस का असर हर छात्र के मन में न सिर्फ ताउम्र रहता है
बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित भी होता जाता है. इसलिए छात्रों के
मन में जातिगत, धार्मिक, सामाजिक और लैंगिक भेद पैसा करती शिक्षा किस तरह का तैयार कर रही
है, चिंताजनक बात है.
अगर इन
सब बातों को तर्क की कसौटी पर रखें तो भी इस तरह की शिक्षा के पक्षधरों की दलीलें बेहद
खोखली नजर आती हैं. जैसा कि हरियाणा में गीता पढाए जाने के पीछे का कारण तो और भी
बेहूदा है कि हिंदू धर्म से संबंधित मिथकीय महाकाव्य महाभारत में वर्णित युद्धस्थल कुरुक्षेत्र हरियाणा में ही है. इसी
युद्धक्षेत्र में तथाकथित भगवान कृष्ण ने
पांडव योद्धा अर्जुन को जो उपदेश दिए थे, वे गीता में संकलित हैं. सोचने की
बात है कि सिर्फ इसलिए कि पारिवारिक कलह और संपति विवाद की घटनाओं को महिमामंडित
करतीं महाभारत और गीता में कुरुक्षेत्र का जिक्र है तो यहाँ गीता पढ़ानी ही चाहिए.
का तर्क बिलकुल ऐसा ही जैसे कोई कहे कि गुजरात में हिन्दू मुसलिम दंगे हुए थे इसलिए
यहाँ के स्कूलों के पाठ्क्रम में दंगो पर भी एक चैप्टर होना चाहिए.
इसी
तरह मुंबई में नगर पालिका स्कूलों में गीता को लेकर गिरगांव चौपाटी में इस्कॉन के
राधा गोपीनाथ मंदिर के आध्यात्मिक गुरु राधानाथ स्वामी का कहना कि टीवी, फिल्में और इंटरनेट से बच्चों के सामने हिंसा, अश्लीलता और उन्माद दिखाए जाने का खतरा है जिससे वे नकारात्मक
विचार और घटनाओं से आसानी से प्रभावित हो सकते हैं. अब इन्हें कौन समझाए कि जिस
तरह की हिंसा, छल, कपट और ऊलजुलूल घटनाएं महाभारत में भरी पडी है, उतनी टीवी पर
कोई दिखा ही नहीं सकता. और रही बात टीवी, फिल्में और इंटरनेट से बच्चों के मन में बुरा असर पड़ने की तो सबसे ज्यादा
आस्था वाले धार्मिक चैनल तो उन्ही धर्मगुरुओं के है. इसी तरह इन्टरनेट पर हर मंदिर
और धर्मिक ट्रस्ट की वेबसाईट है. फिल्मों के नाम पर तो अंधविश्वास और फर्जी चमत्कार्रों
भरी फिल्म दी मेसेंजर ऑफ़ गॉड का उदाहरण तो सबके सामने ही है.
दिक्कत
इसलिए भी है क्योंकि छात्रों को जो पढाया जाना चाहिए उसमें तथ्य, अन्वेषण की पूरी
गुंजाइश हो. तभी तो उनका दिमाग तार्किक बुबुद्धिशीलता के आधार पर अपने ज्ञान को
आगे ले जा पायेगा. लेकिन गड़बड़ यहीं से शुरू हो जाते है. धार्मिक ग्रन्थ, वे चाहे
हिन्दू धर्म के हों या फिर किसी और धर्म
के, उनमें वर्णित घटनाएं न तो एतिहासिक तौर पर प्रमाणित है और न ही उनका कोई व्यापक
ऐतिहासिक संदर्भ है. कोई वास्तविक साक्ष्य नहीं है कि ये चमत्कारी तथाकथित भगवान
थे. जब तक इनके साक्ष्य नहीं हैं तो फिर इन पर सत्य की मुहर लगाकर छात्रों को इनकी
शिक्षा देने का फैसला निहायत ही गैर तार्किक है. कई प्रगतिशील लेखक भी इस बात की
तस्दीक करते हैं कि शिक्षा को आस्था पर नहीं, आलोचनात्माक अन्वेषण पर आधारित होना चाहिए.
ज्यातर
मामलों मे यही देखा गया है कि स्कूलों मों गीता को पढ़ाने की अनिवार्यता पर जोर
दिया जा रहा है. अब इसलिए गीता की भी बात करें तो इसमें आखिर कौन सी बात है जो
छात्रों को सफल और कामयाब भविष्य दे सकती है. जिस गीता में धनसंपत्ति के नाम पर दो
परिवारों की आपसी कलह और मारकाट के अलावा कुछ भी नहीं है उस से भला छात्रों को
क्या शिक्षा हासिल होगी? गीता उपदेश भी कोई वैज्ञानिक
प्रगति की बात नहीं करता. बल्कि अपनों की हत्या करने को उकसाता है.
‘नैनं छिंदंति शस्त्राणि,’ (गीता 2/23), यानी इस आत्मा को कोई
शस्त्र काट नहीं सकता, पढ़ते पढ़ते छात्र अगर
अपने साथियों को मारने लगें तो क्या कोई
अदालत गीता का आत्मा की अमरता का तर्क मान कर इन्हें निर्दोष स्वीकार कर लेगी और
बरी कर देगी? ईइतना ही नहीं इसमें कहा
गया है कि चातुर्वर्ण्य ईश्वर का बनाया हुआ है (गीता, 4/13). इस का अर्थ है कि लोग ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं. ऐसी
भेदभाव व ऊंचनीच की भावना से भरे ज्ञान से छात्रों को क्या लाभ हो सकता है. गीता
तो यह भी कहती है कि स्त्रियां, वैश्य
जाति और शूद्र जाति के लोग पापयोनि हैं. इसका मतलब छात्र अपनी माता या बहनों को पाप
की पैदाइश मानें?
ऐसे ही
रामायण, धार्मिक श्लोक और चापैयाँ समेत लगभग सभी धार्मिक ग्रंथों में किसी न किसी बहाने
भेदभाव और चमत्कारों से भरी शिक्षा देते हैं. दरअसल धर्म की शिक्षा में घुसपैठ के
हिमायती तर्क के बजाये कुतर्क पर चलते हैं. क्योंकि जहां तर्क, विवेक, विचार, मौलिकता और वैज्ञानिकता है वहां धर्म, आस्था और चमत्कारों की कोई
जगह नहीं है. प्रगतिशीलता, तर्कशीलता, वैज्ञानिेकता के दम पर ही दुनिया
तरक्की कर पायी है. अगर आज भी दुनिया सूर्य को देवता और चन्द्रमा को छन्नी दिखाकर
पूजती रहती तो ना कोई चन्द्रयान का मिशन सफल होता और न वैज्ञानिकों को अन्वेषण और
आविष्कार के लिए कोई तथ्य मिल पाते.
दुःख
तो इस बात का है कभीकभी अदालतें भी इनके साथ हो जाती हैं. इंदौर
में जब 13 नवंबर 2011 को स्कूलों में गीता पढ़ाने के निर्णय की घोषणा करते हुए
मुख्यमंत्री ने कहा था कि हिंदुओं का पवित्र ग्रंथ गीता स्कूलों में पढ़ाया जाएगा, भले ही इसका कितना ही विरोध क्यों न हो. तो इसका
नागरिक संगठनों और अल्पसंख्यक समाज द्वारा पुरजोर विरोध किया गया. मामला हाई कोर्ट
तक गया. माननीय उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश सरकार के राज्य के स्कूलों में गीता
सार पढ़ाने के निर्णय पर अपनी
मुहर लगाते हुए कहा कि गीता मूलत: भारतीय दर्शन की पुस्तक है, किसी भारतीय धर्म की नहीं.
यह
मसला सिर्फ हमारे देश तक ही नहीं सिमटा है. दुनिया के और मुल्कों में भी धर्मिक समूह अपने अपने बाइबल और कमांडमेंट्स को
स्कूली छात्रों के नाजुक दिमाग में थोपने पर आमादा दिखते है. कहीं पॉप और केथोलिकअपने
अनुयायियों में इजाफा करने के लिए ऐसा करते हैं तो कहीं धर्म रक्षा जैसे खोखले आधारों पर धर्म
शिक्षा थोपी जाती है. पत्रकार डैनियल पाइप्स के न्यूयार्क सन में 29 मार्च, 2005 को छपे लेख व्हाट आर
इस्लामिक स्कूल्स टीचिंग में ओटावा के इस्लामिक स्कूल में यहूदियों के खिलाफ
घृणा फैलायी जाने वाली शिक्षा का हवाला दिया है. इनके मुताबिक़ न्यूयार्क सिटी – 2003 में न्यूयार्क डेली न्यूज़ ने अपनी जाँच के आधार पर पाया कि
शहर के मुस्लिम स्कूलों में प्रयोग में आने वाली पुस्तकें व्यापक रुप से अनुपयुक्त, यहूदियों और ईसाइयों कि भर्त्सना से भरी हुई और विजयी स्वर में
इस्लाम की सर्वोच्चता की घोषणा करने वाली हैं. लास एंजेल्स 2001 में शहर के
स्कूलों को उमर इब्न ख़तब फाउंडेशन ने 300 कुरान दान किए. परंतु इनमें सेमेटिक
विरोधी भावनायें होने के कारण इन्हें पुस्तकालयों से हटा दिया गया. इस कुरान में
एक पेज के नीचे लिखा गया यहूदी अपने अहंकार में दावा करते हैं कि दुनिया का सारा
ज्ञान और विवेक उनके ह्र्दय में विद्यमान है. उनका यह दावा न केवल अहंकार है बल्कि
धर्म द्रोह भी है. अब खबर की सचाई चाहे जो
भी हो लेकिन इतना तो साफ़ हो जाता है दुनिया भर के मुल्कों में धर्म के नाम पर
शिक्षा को न सिर्फ दूषित किया जा रहा है बल्कि छात्रों को प्रगतिशील भविष्य से दूर
भी किया जा रहा है.
हमारे
संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक
गणराज्य है. संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा. इसके बावजूद
कई बार सात्ताधारी दल किसी विशेष धर्म से लगाव
या जुड़े होने के चलते उस धर्म की शिक्षा को स्कूलों में पाठ्क्रम के माध्यम
से नौनिहालों के मन में इंजेक्ट करने की कोशिश करते हैं. जो सरासर अनुचित है. दिक्कत
यह भी है कि अगर आज कोई सत्ताधारी दल किसी धर्म विशेष से जुडी शिक्षा थोपता है तो
कल को कोई कुरान और बाइबिल भी पाठ्यक्रम में अनिवार्य करने की बात करेगा. ऐसे में
आधुनिक शिक्षा जिस पर आदमी का सामाजिक, आर्थिक और मानसिक विकास
टिका है कहाँ और कैसे पढ़ाई जायगी. फिर स्कूली शिक्षा के अस्तित्व का औचित्य ही
क्या रह जाता है? इस तरह से छात्र पंडापुरोहित या प्रवचन देने
वाले साधू भले ही बन जाएँ लेकिन वैज्ञानिक, डाक्टर, वकील, इंजीनियर नहीं बन सकते. जाहिर है देश पण्डे पुजारे नहीं बल्कि वही
चलाएंगे.
स्कूली शिक्षा का उद्देश्य उनकी
प्रतिभा को तराशकर उनमें तर्क और अन्वेषणयुक्त वैज्ञानिक सोच पैदा करना होता है.
इसलिए शिक्षकों को बच्चों को नए अन्वेषण के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. धार्मिक
शिक्षा के जरिये उनको हजारों साल की पिछड़ी दुनिया में ले जाना दुनिया और समाज के
साथ अन्याय है.